रायपुर । संभवनाथ जैन मंदिर विवेकानंद नगर में आत्मोल्लास चातुर्मास 2024 की प्रवचनमाला जारी है। मंगलवार को तपस्वी मुनिश्री प्रियदर्शी विजयजी म.सा. साहब ने कहा कि जीवन में लोकप्रिय नामक गुण होगा तो धर्म की अवश्य प्राप्ति होगी। लोकप्रियता गुण प्राप्त करने की पांच बातें प्रमुख हैं। इनमें इस लोक संबंधी- परलोक संबंधी विपरीत प्रवृत्तियों का त्याग एवं दान,शील और विनय तीन गुण का स्वीकार्य, इस तरह से व्यक्ति समाज के अंदर,संघ के अंदर लोकप्रिय बनता है और लोकप्रिय व्यक्ति को कभी भी धर्म के अंदर अड़चन नहीं आती है। मुनिश्री ने कहा कि जीवन के अंदर निंदा का त्याग अवश्य करना चाहिए।

शास्त्रकार भगवंत ने इस लोक संबंधी खराब प्रवृत्तियों में निंदा को प्रमुख बताया है,बाकी सारे अवगुण हैं तो कह सकते हैं निंदा उसका मूल है। निंदा यदि जीवन में हो तो बाकी अवगुण आने में देर नहीं लगती। निंदा एक ऐसी चीज है जो हर किसी को प्रिय है। निंदा करने वाला व्यक्ति हमेशा यह सोचता है कि मैं जो कहता हूं वह सत्य होता है। किसी के बारे में मैं गलत नहीं बोलता, ऐसा व्यक्ति अपने आप को समाज के अंदर सत्यवादी तरीके से स्थापित करता है। निंदा का रस सबसे अधिक खतरनाक है। मुनिश्री ने कहा कि निंदा का प्रवेश जीव दो अवगुणों के कारण कराता है।

पहले अपना उत्कर्ष करने के लिए, दूसरा ईर्ष्या के कारण। या तो व्यक्ति स्व उत्कर्ष के लिए निंदा का सहारा लेता है या फिर समाज के अंदर दूसरों की उनके अवगुणों की तलाश कर निंदा करता है। वहीं व्यक्ति जीवन के अंदर जो गुण नहीं होते,उस गुण को प्राप्त कर सके ऐसी कोई शक्ति नहीं होती तो ईष्या के कारण भी व्यक्ति निंदा को प्रवेश देता है। निंदा ईर्ष्या के कारण जन्म लेती है। किसी की समृद्धि ,रूप,बोलने की कला, किसी के संघ में मान सम्मान को देखकर यहां तक की घरों में भी  ईर्ष्या के कारण ही झगड़ा होता है। धन दौलत ही नहीं,कपड़े और जूते में भी लोग ईर्ष्या कर सकते हैं। एक को इतना अच्छा, मुझे इतना कम यह ईर्ष्या ही है। मुनिश्री ने कहा कि ईर्ष्या को खत्म करने के लिए मन मे कवच चाहिए।

जैसे कोरोना की बीमारी के लिए वैज्ञानिकों ने कवच तलाश किया। वैसे ही ईर्ष्या मन के अंदर अवश्य आ सकती है, लेकिन आने के बाद ईर्ष्या मन के अंदर प्रभाव ना दिखाएं उसके लिए जीवन के अंदर अच्छे दृष्टांत को लाना चाहिए। लोकप्रिय बनने के लिए सबसे पहले जीवन से निंदा का त्याग करना होगा। निंदा को बढ़ावा देने वाली ईर्ष्या और स्व उत्कर्ष की बुद्धि का त्याग करना होगा। ऐसा कर ही परमात्मा के बताएं मार्ग में तभी आगे बढ़ पाओगे और अपना कल्याण कर पाओगे।