रायपुर। सन्मति नगर फाफाडीह में जारी चातुर्मासिक प्रवचन माला में शनिवार को आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने कहा कि केवल धर्म को जानने वाले कभी धर्म का पालन नहीं कर पाएंगे। सारे वयोवृद्ध, ज्ञानी -ध्यानी,तपोनिष्ठ, त्यागी, व्रती,विद्वान आचार्य, मुनि,आर्यिका,गणनी, सबको ध्यान देना होगा कि सिर्फ धर्म को जानने वाला धर्म नहीं कर पाएगा। ज्ञानियों पहले अधर्म को जानना पड़ेगा,तब धर्म का पालन कर पाओगे। यह मत सोचना कभी कि सामने वाला ऊंचा, धनपति व प्रभावी है इसलिए क्या मैं उसकी बात मान लूं ? मित्र जो सत्यार्थ का जीवन जीकर सत्य को जानता है उसकी बात मानो,उसका नाम तीर्थंकर है। स्वप्न की बातों में मत डूबो,जो भगवान ने कहा है उसे मानो।
आचार्यश्री ने कहा कि किसी को स्वप्न स्वर्ग का तो किसी को नर्क का आता है। इन स्वप्न के चक्कर में मिथ्यात्व को मत बढ़ाइए,ये जिनशासन है,स्वप्न का शासन नहीं है,ये सर्वज्ञ शासन है, सर्वज्ञ की बात प्रमाणित होती है, स्वप्न की बात प्रमाणित नहीं होती। आप कभी छले मत जाना,जगत बहुत तीव्र मिथ्या की ओर दौड़ रहा है, जहां लोग सपनों को प्रमाणित करके आपसे अपनी पूजा कराना चाहते हैं। जो ग्रंथों में लिखा है,निग्रंर्थों ने लिखा है उसे मानो। जो स्वप्न प्रमाणित थे वह भगवान तीर्थंकर की मां को सोलह स्वप्न आते हैं,चक्रवर्ती को 16 स्वप्न आए थे,चंद्रगुप्त को 16 स्वप्न आए थे, वे सारे सपनों का फल हमारे ग्रंथों में लिखा जा चुका है,परंतु आज कोई स्वप्न आ रहा है कि जैसे चातुर्मास समिति का अध्यक्ष तीर्थंकर बनेगा! मित्र प्रदीप पाटनी तुम हाथ जोड़कर कहना कि भैय्या मुझे श्रावक ही रहने दो, मैं मुनि बनकर भगवान बन जाऊंगा लेकिन कपड़े पहने-पहने मित्र तीर्थंकर नहीं बनना चाहता हूं।
आचार्यश्री ने कहा कि अभी भी कितने रहस्य हैं, वह क्या सुंदर दिन होगा जैसे आज धम्म रसायण ग्रंथ की रायपुर में खुलकर वाचना हो रही है। कभी श्री ध्वल,जय ध्वल की वाचना हो,उपदेश हो। ज्ञानियों धर्म की घोषणा करने वाले लोगों को पहले धर्म को पहचानना चाहिए व अधर्म को समझना चाहिए। केवल जैन धर्म के ही नहीं देश के युवाओं को पहले अधर्म को समझना चाहिए फिर ही धर्म का पालन कर पाएंगे। मित्रों जो उत्कृष्ट धर्म है,वह अहिंसा, तप, संयम है। जिस धर्म को देवता भी नमस्कार करते हैं,ऐसे धर्म को सदा स्वीकार करो, नमस्कार करो। जहां अधर्म को ही धर्म कहा जाता हो उसे आप धर्म कैसे कहेंगे।
आचार्यश्री ने कहा कि जब तक अधर्म का ज्ञान नहीं होगा,तब तक धर्म का ज्ञान हो नहीं सकता है। अधर्म है इसलिए धर्म है, धर्म है इसलिए अधर्म है। सिर्फ धर्म को जानने वाले धर्म नहीं कर पाएंगे, आपने धर्म ही धर्म जान लिया,हर वस्तु को धर्म के रूप में देख लिया तो पाप भी धर्म हो जाएगा, इसलिए अधर्मों को देखिए,फिर धर्म को समझिए। जो व्यक्ति जिस घर में जन्मा है उस घर की परंपरा से सत्य का निर्णय करेगा तो जीवन में कभी सत्य के पास नहीं जा पाएगा। जो व्यक्ति जहां दीक्षित हुआ है उस परंपरा से निर्णय करेगा तो वह सत्य के पास नहीं जा पाएगा। यदि सत्य को जानना चाहते हो तो परंपराओं से उठकर आगम के पास जाना होगा तब सत्य का ज्ञान प्राप्त होगा।
आचार्यश्री ने उदाहरण देते हुए समझाया कि कोई बर्तन चांदी का है व अन्य कोई बर्तन सोने का है,दोनों धतुओं को आपने कैसे भिन्न किया ? ये तभी संभव है जब वहां दो धातु उपलब्ध हों,यदि एक ही धातु चांदी के बर्तन की होती तो आप ये जान ही नहीं पाते कि कोई सोना नाम की धातु भी होती है। ऐसे ही धर्म और अधर्म को हम जान सकते हैं कि किस क्रिया में धर्म है व किस क्रिया में अधर्म है,वह हम आगम से ही जान सकते हैं। ऐसे ही सत्य को समझना है तो सिर्फ घर की दादी नानी की कहानी ही मत सुनो, जिनवाणी मां को भी सुनो और समझों।