नई दिल्ली । पुरानी पेंशन की व्यवस्था लागू करने वाले राज्य (State) वर्ष 2030 तक दिवालिया हो सकते हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) के अध्यक्ष डॉ. बिबेक देबरॉय ने इसे एक खतरनाक रुझान करार दिया है।

डॉ. देबरॉय ने कहा कि पुरानी पेंशन व्यवस्था से होने वाले दुष्प्रभाव का पता कुछ साल बाद चलेगा। एक विशेष इंटरव्यू में उन्होंने कहा, जो राज्य इसे लागू कर रहे हैं, वे इसके भयावह आर्थिक परिणाम को नजरअंदाज कर रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नई पेंशन योजना के पीछे क्या राजनीतिक व आर्थिक वजहें रही हैं। उन्होंने कहा, अगर हम करदाताओं का दायरा बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें धीरे-धीरे ऐसा सिस्टम लाना चाहिए, जहां कोई छूट न मिले।

गहन छानबीन से तोड़ सकते हैं चीनी कंपनियों के रैकेट
डॉ. देबरॉय ने कहा कि चीनी कंपनियों के रैकेट को गहन छानबीन से ही तोड़ा जा सकता है। साथ ही, कारोबारी नियमों को सरल बनाए जाने की जरूरत है। लेन-देन में पारदर्शिता भी वक्त की जरूरत है।

नई कर व्यवस्था अपनाने वालों को मिले प्रोत्साहन
डॉ. देबरॉय ने माना कि नई कर व्यवस्था को अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली। उन्होंने कहा कि इसे अपनाने वालों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पुरानी कर व्यवस्था को लोग इसलिए स्वीकार कर रहे हैं, क्योंकि अब भी सारी छूट उसी में दी जा रही है।

डॉ. देबरॉय ने कहा, फिलहाल दो अलग प्रणाली हैं। चाहे पर्सनल टैक्स भरने वाले हों, या कॉरपोरेट वाले, बिना छूट वाली प्रणाली को किसी ने भी नहीं अपनाया है। ऐसे में छूट विहीन प्रणाली को ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जाना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि इस बजट में इसे और भी प्रभावी बनाया जाएगा।

महंगाई के तय दायरे पर फिर से हो विचार
पिछले साल में महंगाई का मुद्दा हावी रहा। काफी कोशिशों के बाद आरबीआई इसे 6 फीसदी से नीचे लाने में कामयाब रहा। क्या विकास को रोक कर महंगाई को कम करने का फॉर्मूला सही साबित हुआ है?

महंगाई से हमारा दो तरह से वास्ता पड़ा है। पहला, खाद्य महंगाई से। दूसरा, वैश्विक बाजार में कमोडिटी और पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी कीमतों से। कच्चे तेल के दाम अभी अनिश्चित रहने वाले हैं। यह दुनिया के लिए चिंता का विषय है। पर मौजूदा हालात में इसमें थोड़ी राहत मिली है। अगर हम लोगों के नजरिए से देखें तो उनके लिए खुदरा महंगाई ज्यादा महत्वपूर्ण है। मुझे लगता है कि जीडीपी डिफ्लेटर द्वारा मापी जाने वाली महंगाई अगले साल 5.5 फीसदी या अधिकतम 6 फीसदी रहेगी। जहां तक दायरे की बात है तो यह 4-6 फीसदी तक आरबीआई ने तय किया है।

मेरे हिसाब से इस बैंड पर फिर से विचार की जरूरत है क्योंकि मौजूदा हालत में 4 फीसदी शायद बहुत कम है। महंगाई के कर्व को ऊपर-नीचे करने की कोशिश की जाती है तो इसका असर विकास दर पर अवश्य पड़ता है। मैं फिर कहूंगा कि यह मेरी निजी राय है कि 4 फीसदी के निचले बैंड पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए।

कृषि में सुधार के लिए जमीन के रिकॉर्ड को अपडेट करना होगा। किसानों के उत्पादों के सही वितरण और उन्हें खेतों से बाहर रोजगार देने की जरूरत है।

सबसे बड़ी चिंता
देश में 6 करोड़ से भी कम लोग आयकर रिटर्न फाइल करते हैं और डेढ़ करोड़ से भी कम जीएसटी पर रजिस्टर्ड हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग रिटर्न भरें, इस पर आप क्या कहना चाहते हैं?

मैं आपसे सहमत हूं। मेरे हिसाब से कमाने वाले सभी नागरिकों को आयकर रिटर्न भरना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि आपको टैक्स भरना ही है। रिटर्न भरने वालों की संख्या थोड़ी बढ़कर 6 करोड़ पहुंची है। फिर भी इतनी बड़ी आबादी को देखते हुए यह कम है। इससे भी इन्कार नहीं कर सकते कि कई मामलों में टैक्स चोरी भी होती है। टैक्स चोरी करना और उसे नजरअंदाज करना दो अलग बातें हैं। चोरी गैरकानूनी है, पर रिटर्न भरने में टालमटोल यह बताता है कि आपने उपलब्ध छूट का लाभ उठाया है और कर नहीं भरा है। ऐसे में सिर्फ वेतनभोगी करदाताओं की ओर नहीं देखा जाना चाहिए, जिनके पास छूट पाने के बड़े सीमित मौके हैं। ज्यादातर छूट का फायदा कंपनियां या असंगठित व्यापारी उठाते हैं, जो पर्सनल इनकम टैक्स नियम के दायरे में आते हैं। अगर करदाताओं का दायरा बढ़ाना है तो हमें धीरे-धीरे ऐसा सिस्टम लाना चाहिए, जहां किसी भी छूट का प्रावधान न हो।

2047 में जब हम आजादी के 100 साल पूरे करेंगे तो आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए हमें किस तरह आगे बढ़ना चाहिए?

आपने बड़े मुद्दे का सवाल पूछा है। इसके लिए हमें केंद्र सरकार के एग्जीक्यूटिव आर्म के अलावा राज्य सरकार और उनके खर्च, जुडिशरी, संसद और राज्य सरकार की विधायिका जैसे सभी मुद्दों को देखना होगा।

डॉलर की तुलना में भारतीय रुपये के एक्सचेंज रेट का दायरा क्या होना चाहिए?इसका सही जवाब देना मुश्किल है, क्योंकि एक्सचेंज रेट बाजार तय करता है। हालांकि, इसमें आरबीआई का थोड़ा दखल जरूर होता है। यह चालू खाता घाटा पर भी निर्भर है। वैश्विक बाजार में उतार-चढ़ाव भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।

खाद्य सुरक्षा को एक साल बढ़ाया गया है। क्या वास्तव में 80 करोड़ गरीब हैं और उन्हें मुफ्त राशन मिलना चाहिए? गरीबी के आकलन के अलग-अलग तरीके हैं। अब भी तेंदुलकर पावर्टी लाइन को ही इसका पैमाना माना जाता है। इसके लिए 2011-12 के आधिकारिक आंकड़े को आधार माना गया है। गरीबी का आकलन मान्यताओं या अनुमानों के आधार पर हो रहा है। जब 2011-12 के डाटा का इस्तेमाल अब भी हो रहा है तो इसमें कुछ अनुमान भी शामिल है। इसलिए, तेंदुलकर कमेटी हो, यूएनडीपी हो या फिर मल्टीडाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स, अलग-अलग पैमाने से इसकी अलग-अलग संख्या होगी। पर, अमूमन सभी में 10-20% लोग गरीबी रेखा के नीचे पाए गए हैं। तो सवाल यह है कि क्या इतनी बड़ी संख्या में गरीब हैं और वे मुफ्त राशन के हकदार हैं? तो जवाब है नहीं। पर, इसके लिए हमें कानून बदलने की जरूरत होगी।

राज्यपाल ही नहीं सभी मुद्दों पर देना होगा ध्यान
सांविधानिक रूप से गवर्नर की जरूरत तो पड़ती ही है। बड़ा सवाल यह है कि क्या हमें संविधान की फिर से समीक्षा करने की जरूरत है। हमारा संविधान मुख्य रूप से भारत सरकार के एक्ट 1935 पर आधारित है। जब हम अंग्रेजों के जमाने की बात करते हैं तो इसमें सिर्फ गवर्नर ही नहीं कई सारे मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।