बड़ी पुरानी कहावत है, बेटियां पिता की दुलारी होती हैं और बेटियों का पहला हीरो उनका पिता होता है। इसके बावजूद किशोर और युवावस्था के दौरान एक समय ऐसा आता है, जब बेटियों की अपने पिता से दूरी हो जाती है। वे अपने मन की बात कहना बंद कर देती हैं। पिता की नसीहतें उन्हें पसंद नहीं आतीं और कई बार विद्रोही तेवर अपना लेती हैं।

ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी ने अमेरिका में एक शोध किया। इससे पता चला है कि 14 से 22 साल के 26% युवाओं की किसी न किसी बात पर अपने पिता से दूरी हो जाती है। लेकिन, यह लंबे समय तक नहीं रहती और ज्यादातर मामलों में बच्चे ही इस दूरी को पाटने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। इसमें भी बेटियां आगे हैं। वे बेटों की तुलना में अपने पिता से 22% ज्यादा रूठती हैं। मां से दूरी होने या रूठने की बात की जाए तो बेटों और बेटियों दोनों की ही पिता की तुलना में मां से दूरी होने की आशंका सिर्फ 6% है।

आपसी सहमति न होने से बढ़ती हैं दूरियां
ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रिन रेकजेक कहते हैं- किशोर से युवा होने के दौरान बहुत सारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक बदलाव होते हैं, जैसे स्कूल से कॉलेज, नौकरी, शादी। इन बदलावों के फैसले में पिता की सोच से सहमत न होने पर दूरी बन जाती है।

शादीशुदा और तलाकशुदा बच्चों की मां-बाप से दूरी ज्यादा
रिसर्च से पता चला है कि बच्चों की पिता से दूरी बनने की औसत उम्र 23 साल है, जबकि मां से दूरी बढ़ने की औसत उम्र 26 साल है। शादीशुदा और तलाकशुदा बेटे-बेटियों की मां-बाप से ज्यादा दूरी हो जाती है। लेकिन जब उनके अपने बच्चे होते हैं तो उनकी सोच बदलती है और दिमाग सिकुड़ता है। ऐसे पेरेंट्स की अपने मां-बाप से नजदीकियां बढ़ती हैं।

दूरियों के बाद जब दोबारा नजदीकी बनती है तो बेटी मां से और बेटे पिता से ज्यादा गहराई से जुड़ जाते हैं। रेजाक रिसर्च में बताते हैं कि 87% समलैंगिक बच्चों की अपने पिता से दूरी हो जाती है। कई मामलों में उनकी आपस में बातचीत भी पूरी तरह बंद हो जाती है।

थोड़ी समझदारी से पिता बच्चों से बात करें तो दूरियां दूर हो जाती हैं
प्रोफेसर रिन रेकजेक कहते हैं, बच्चों और पेरेंट्स दोनों को इन दूरियों को खत्म करने की कोशिश करनी होगी। पढ़े-लिखे और नौकरी करने वाले पिता इस दूरी को आसानी से कम कर सकते हैं।

इसके लिए जरूरी है कि पिता अपने बच्चों से बात करें। अपने फैसले उनपर न थोपें। उन सभी विषयों पर जिसमें बच्चे अलग सोच रखते हों, उनसे बात करें। उनके विचार सुनें। कई बार थोड़े बदलाव के बाद बच्चों की बात मान लेने से कोई नुकसान नहीं हो रहा होता।