अशोकनगर ! केन्द्र और राज्य सरकार भले ही बच्चों के हित में कई कल्याणकारी योजनाएं संचालित कर रही हो मगर जमीनी हकीकत इतनी कठोर है कि मासूमों के सपने साकार नहीं हो पा रहे हैं। रविवार को बालश्रम के खिलाफ विश्व दिवस के अवसर पर मैदानी हकीकत जानने शहर के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बाल श्रम कर रहे बच्चों को देखा तो अकेले जिला मुख्यालय पर ही बड़ी संख्या में बाजार में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे काम करते नजर आए। इनमें से ज्यादातर बच्चे सुबह 8 बजे से लेकर रात 10 बजे तक काम करते हैं। जो कि अमानवीय है, मगर न तो श्रम विभाग और न ही जिला प्रशासन के आला अधिकारी इस ओर ध्यान देते हैं। अधिकांश दुकानदार अपनी दुकान पर बच्चों को काम पर लगाना पसंद करते हैं क्योंकि इनमें से ज्यादातर बच्चों के घरों में इतनी गरीबी होती है कि वे पढ़ाई-लिखाई छोडक़र काम करने को मजबूर हो जाते हैं जिसका फायदा उठाते हुए दुकानदार इन्हें कम तनख्वाह पर रख लेते हैं एवं 12 से 15 घंटे तक हाड़ तोड़ मेहनत करवाते हैं। कई दुकानदार तो बच्चों के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं एवं अपशब्दों का प्रयोग करते हुए कभी-कभार हाथ भी उठा देते हैं मगर इस प्राइवेट नौकरी के छिन जाने के डर से इन बच्चों के माता-पिता या परिजन दुकानदार का विरोध नहीं करते हैं। अधिकांश बच्चों और उनके अभिभावकों को बच्चों के अधिकार और कानून की जानकारी नहीं है जिससे वे शोषण के शिकार हो रहे हैं। दूसरी ओर महिला एवं बाल विकास विभाग, श्रम विभाग सहित प्रशासन के आला अधिकारी बच्चों की इस दुर्दशा को सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रहे हैं। न केवल शहर के मुख्य बाजारों में बल्कि ज्यादातर सरकारी कार्यालयों के आसपास की दुकानों पर बाल श्रम अधिनियम की धज्जियां उड़ रही हैं मगर अधिकारी अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर इसे अनदेखा कर रहे हैं। शहर के नामी होटलों में भी बालश्रम डंके की चोट पर हो रहा है। इसके अलावा चाय-नाश्ता की दुकानों, सब्जी-फू्रट के ठेलों, खाना की होटलों, कपड़ा-मनिहारी की दुकान पर छोटे-छोटे बच्चे ठंड, गर्मी, बरसात के मौसम में काम करने के लिए मजबूर हैं।
सपने हुए चूर : हर मासूम बच्चे का सपना होता है कि उसका बचपन सुख-आनंद में व्यतीत हो। उसे भी अच्छा खाना, पहनना, शिक्षा एवं खेल मिले, जिससे उसका बचपन संवरने के साथ उसका समग्र विकास हो सके। उसे भी वह सभी मूलभूत सुविधाएं मिलें जो समर्थ लोगों के बच्चों को मिलती हैं लेकिन गरीबी, बेरोजगारी के चलते ऐसे बच्चों के मां-बाप परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के चलते छोटे बच्चों को काम में लगा देते हैं, जिससे वह परिवार में आर्थिक सहयोग देकर परिवार की गाड़ी को चला सकें लेकिन कुछ अभागे बच्चे परिवार की दुर्दशा तो कुछ शासन की कमजोर इच्छाशक्ति के चलते अपने सपनों को अपनी आंखों के सामने चूर होते देखते हैं। सरकार की योजनाएं भी ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए सिर्फ कागजों में ही सीमित रहती हैं। इनका कभी उद्धार नहीं करतीं।

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