नई दिल्ली । यूपी के चुनावी घमासान में बसपा की धीमी चाल राजनीतिक समीकरण प्रभावित कर सकती है। मौजूदा समय में भाजपा, सपा और कांग्रेस के मुकाबले बसपा की तैयारियां काफी कम दिख रही है। ऐसे में विभिन्न दलों की कोशिश बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की है।

बसपा के उभार में उसके साथ जुड़े सवर्ण व पिछड़ा वर्ग समुदाय का भी बड़ा योगदान रहा है। भाजपा की रणनीति इस वर्ग को अपने साथ जोड़ने की है।बीते एक दशक में राज्य में बसपा की ताकत लगातार घटी है। 2012 के विधानसभा चुनाव में उसे 80 सीटें मिली थीं, जबकि 2017 के चुनाव में वह 19 सीटों पर सिमट गई थी। उसे वोट भी 22.2 फीसदी ही मिल सके थे। इन पांच सालों में बसपा ने सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन भी नहीं चलाया है। ऐसे में उसका समर्थक वर्ग कितना उसके पास रह सकेगा, इसे लेकर संशय है।

सूत्रों के अनुसार, भाजपा की रणनीति बसपा के कमजोर दिखने की स्थिति का लाभ लेने की है। पिछले लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव में उसे काफी लाभ भी मिला था। इस समय बसपा सुप्रीमो मायावती पार्टी में नया नेतृत्व सामने ला रही है। सतीश चंद्र मिश्रा के अलावा और कोई बड़ा सवर्ण चेहरा बसपा के पास नहीं है। ओबीसी समुदाय के भी कद्दावर नेताओं की बसपा में कमी है। इनमें कई भाजपा के खेमे में हैं। भाजपा अपनी पिछली जीत को बरकरार रखने के लिए बसपा के सवर्ण और पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने की तैयारी में है। बीते चुनावों में भी भाजपा को इन वर्गों का बड़ा समर्थन मिला था। अब उसे और बढ़ाने की तैयारी है।

भाजपा नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश में दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को शामिल कराने के लिए एक ज्वाइनिंग कमेटी भी बनाई हुई है। यह समिति जोर शोर से काम कर रही है और लगातार सपा, बसपा व कांग्रेस के छोटे-बड़े नेताओं को शामिल किया जा रहा है। सूत्रों के अनुसार, भाजपा की कोशिश है कि राज्य में सत्ता विरोधी माहौल में उसके साथ रहने वाले लोग अगर नाराजगी दिखाते हैं तो वह उसकी भरपाई के लिए पिछली बार दूसरे खेमे में खड़े लोगों को अपने साथ जोड़े ताकि नुकसान न हो।