उज्जैन सिंहस्थ महापर्व में मानवीय संवेदनाओं की जो झलक दिखाई दी वह वास्तव में मानव जीवन के लिए जीवंत और उपयोगी सिद्ध होगी। मानव का मानव के प्रति प्रेम, संस्कृति, कला, ज्ञान-विज्ञान एवं प्रकृति से प्रेम करने की सीख महाकुम्भ, मंथनद्, में श्रद्धालुओं को मिला हैं।
व्यक्तिवाद, जातिवाद, समाजवाद, क्षेत्रवाद की मानसिकता से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद के प्रति सोच बदलने की स्वमेव जो सीख उज्जैन नगरी में एक माह तक चलने वाले कुम्भ में मिली हैं वह निश्चित रूप से कामयाबी के शिखर में पहुँचने में मददगार साबित होगी।
भौतिकवादी एवं आधुनिक युग के बदलते परिवेश से भारत की मूल संस्कृति को लोग बिसरते जा रहे हैं। सिंहस्थ महापर्व में उमड़े जन-सैलाब को नयी चेतना, पुराना वैभव, कला एवं संस्कृति को जानने का सुखद अवसर मिला है।
मोक्ष दायिनी क्षिप्रा में जहाँ एक ओर अमृत स्नान का फल श्रद्धालुओं ने प्राप्त किया, वहीं दूसरी ओर मुनि-महात्माओं, साधु-संतों की अमृतरूपी वाणी से परिवार एवं समाज में मानवीय संवेदना जगाने की प्रेरणा भी प्राप्त की है। यह जाना कि संस्कार पैसे-रूपये से नहीं मिलता बल्कि उसके लिए शिक्षा एवं सत्संग आवश्यक है।
सिंहस्थ महापर्व के अवसर पर दत्त अखाड़ा जोन के सदावल मार्ग में विभिन्न अखाड़ों से ज्ञान रूपी गंगा बही, जिसमें सभी भक्तों ने डुबकी लगायी। संसार की मोहमाया से विरक्त सन्त-महात्माओं ने स्वार्थ से हटकर भारतीय इतिहास, राम, कृष्ण, देवी-देवताओं की चमत्कारिक एवं यथार्थवादी गाथाओं से आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।
सिंहस्थ महापर्व के अवसर पर विभिन्न पाण्डाल में शाम चार बजे से भजन-कीर्तन शुरू होता है। इस दौरान श्रद्धालु भक्तिभाव में तल्लीन एवं सराबोर होकर थिरकने लगते हैं।
श्रद्धालु अमृतरूपी वाणी सुनने के बाद जैसे सड़क पर निकलते हैं तो अखाड़ों में चल रहे भण्डारे स्वमेव अपनी ओर खींच लेते हैं। सामाजिक समरसता का इससे बड़ा उदाहरण और कहीं नहीं मिल सकता।