नई दिल्ली। UP में 2022 का विधान सभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है, वैसे-वैसे जातीय समीकरण बदलने के लिए जोड़ तोड़ शुरू हो गयी है। जिस बहुजन समाज पार्टी (बसपा ) की स्थापना ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का विरोध में हुई थी, वो अब प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन करके ब्राह्मण को पूज रही है। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। 2007 के विधान सभा चुनावों में भी बसपा ने ब्राह्मण का हाथ थामा था और उसके बूते पर विधान सभा में बहुमत पा कर सरकार बनाई थी। 2012 में अखिलेश आ गए । 2017 के चुनावों में राजनीति पूरी तरह बदल गई। 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के साथ ही इसकी गूँज सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश में सुनाई दी। ब्राह्मण समेत सारे सवर्ण बीजेपी के खेमे में आ गए।

  प्रदेश में ब्राह्मण मतदाता 10 प्रतिशत है। पुरोहित के तौर पर गांव-गांव में मौजूद ब्राह्मण ओपिनियन लीडर का काम भी करता है। सरकारी कर्मचारियों में भी उनकी संख्या काफ़ी अधिक है। इनकी मदद भी चुनाव में महत्व पूर्ण होती है। लेकिन कुछ दिनों से चर्चा चल रही है कि ब्राह्मण मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ से नाराज है। इसके कई कारण गिनाए जा रहे हैं। सबसे पहले तो ये कि सरकार में ब्राह्मणों की उपेक्षा की जा रही है। थाना से लेकर सचिवालय तक राजपूतों को नियुक्त कर दिया गया है। कई ब्राह्मण अपराधियों को मुठभेड़ में मार दिया गया, जबकि राजपूत अपराधियों को संरक्षण दिया जा रहा है। जमीनी स्तर पर ब्राह्मण, राजपूत और यादव एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। आम तौर पर ये तीनों जातियाँ किसी एक पार्टी के साथ नहीं रहती हैं। लंबे समय तक ब्राह्मण कांग्रेस के साथ थे। तब कांग्रेस का एक क्षत्र राज था। अस्सी के दशक तक ब्राह्मण, मुसलमान और दलित कांग्रेस के आधार थे। बाद में चल कर जातीय समीकरण बदलने लगा। एक तरफ़ बसपा के नेता कांशीराम ने दलितों को कांग्रेस से काट दिया तो दूसरी तरफ़ मुलायम सिंह यादव ने यादव -मुसलमान समीकरण बना कर मुसलमानों को कांग्रेस से अलग कर दिया। इसके बाद कांग्रेस सत्ता के दौड़ से बाहर हो गयी है।

  बसपा एक बार फिर 2007 के प्रयोग को दुहराने की तैयारी कर रही है। प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलनों के समापन समारोह में पार्टी सुप्रीमो मायावती ने ब्राह्मणों को आश्वासन दिया कि उनका राज आया तो ब्राह्मण पर कोई अत्याचार नहीं होगा। इन सम्मेलनों में मुख्य तौर पर ब्राह्मणों को ही बुलाया गया। पार्टी में किसी भी नेता का क़द नहीं बढऩे देने वाली मायावती इन दिनों सतीश मिश्रा को कंधों पर उठाकर घूम रही हैं। यादव और मुस्लिम धुरी पर टिकी समाजवादी पार्टी (सपा ) को भी ब्राह्मणों की ताकत का एहसास है। सपा ब्राह्मणों को ख़ुश करने के लिए प्रदेश भर में परशुराम की मूर्ति लगवा रही है और ब्राह्मणों का सम्मान कर रही है। सपा और बसपा दोनों की समस्या ये है कि उनका पारंपरिक आधार टूट चुका है। सपा से अति पिछड़े अलग होकर बीजेपी के साथ जा चुके हैं। बसपा का अति दलित भी बीजेपी की तरफ़ कूच कर चुका है। ऐसे में जातीय समीकरण बनाए रखने के लिए दोनों ब्राह्मण की तरफ़ देख रहे हैं।

  बीजेपी भी ब्राह्मणों को मनाने में जुट गयी है। अब बीजेपी भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रही है। इसके पहले प्रधान मंत्री कार्यालय में काम कर चुके आईएएस अधिकारी एके शर्मा को उत्तर प्रदेश भेज कर विधान परिषद का सदस्य बनाया गया। जितिन प्रसाद को मंत्री बना कर ब्राह्मणों को ख़ुश करने की चर्चा भी है। बीजेपी को विश्वास है कि राम मंदिर निर्माण के चलते ब्राह्मण उससे अलग नहीं जा सकता है। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में 31 फीसदी ब्राह्मणों ने वोट किया था. जबकि 2014 में उसके पक्ष में सिर्फ 11 फीसदी ही रह गए. 2009 में बीजेपी को 53 परसेंट ब्राह्मणों ने वोट किया. जबकि 2014 में 72 फीसदी का समर्थन मिला. बीएसपी को इस वर्ग का 2009 में 9 फीसदी जबकि 2014 में सिर्फ 5 फीसदी वोट मिला. समाजवादी पार्टी इन्हें नहीं रिझा पाई. उसे 2009 और 2014 दोनों लोकसभा चुनाव में पांच-पांच फीसदी ही ब्राह्मण वोट हासिल हुए।

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