सोनागिर। रोटी पकती है तपने के बाद, मिट्टी कलश बनती है तपने के बाद, सोना आभूषण बनता है तपने के बाद, आत्मा परमात्मा बनती है तपने के बाद। शरीर सुखाने का नाम तप नहीं है इच्छाओं को शांत करने का नाम तप है। खुद में खुद को ढूंढने का नाम तप है। जिसे करने के बाद आत्मा निर्मल हो जाए उसका नाम तप है। आत्मा को तपाने के लिए पहले शरीर को तपाना पड़ेगा यह विचार क्रांतिवीर मुनिश्री प्रतीक सागर जी महाराज ने पर्यूषण पर्व के सातवें दिवस शनिवार को उत्तम तप धर्म पर सोनागिर अमोल वाली धर्मशाला के आचार्य पुष्पदंत सागर सभागृह में धर्म सभा को संबोधित करते हुए कही।
मुनि श्री ने कहा कि तपस्वी के अंदर समर्पण होना चाहिए अकड़ नहीं और यह तभी हो सकता है जब आत्मा में संयम का जागरण हो जाए भोगो का अंधकार समाप्त हो जाए, पर से नाता तोड़कर अपने आप में लीन हो जाए। ज्ञानीओ ने कहा है कि जो पर की चिंता करता है वह संसार में अटक जाता है और जो स्वयं चिंतन में डूब जाता है वह निर्वाण को प्राप्त कर लेता है जैसे पांच पांडवों मैं से तीन पांडवों ने मोक्ष को प्राप्त किया दो पांडव स्वर्ग में ही अटक गए उनके मन में उपसर्ग आने पर यह विचार आया कि मेरे भाइयों का क्या हो रहा होगा। जिस कारण वह निर्वाण को प्राप्त ना कर सके स्वर्ग मे ही रह गए।
मुनिश्री ने कहा कि दूध को अगर गर्म करना हो पात्र का गर्म होना जरूरी है। उसी प्रकार आत्मा को परमात्मा बनाना हो तो शरीर को तपना आवश्यक है। यह शरीर भोग और विलासताओ में डूबने के लिए नहीं मिला है। तप करने के लिए मिला है क्योंकि आत्मा के अंदर सूर्य से भी अधिक तेज है। तप दुनिया को दिखाने के लिए नहीं स्वयं के अंदर सोए हुए परमात्मा को जगाने के लिए होना चाहिए। ख्याति लाभ पूजा के लिए की जाने वाली तपस्या निरर्थक है।