भोपाल ! जबलपुर के राईटाऊन में किताबों की दुकान ‘जिज्ञासाÓ अपने तरह की एक ही दुकान हुआ करती थी, कारण- आज से 40 साल पहले जब गिनी-चुनी महिलाएं ही कारोबारी दुनिया में कदम रख पाती थीं, तब श्रीमती मनोरमा चौहान ने इस दुकान का संचालन किया। आज भी वे उन दिनों को याद कर रोमांचित हो उठती हैं। क्योंकि जबलपुर में उनकी दुकान उस समय चर्चा का विषय था। लोग उन्हें आश्चर्य की निगाह से देखा करते थे। अब आलम यह है, कि दुकान का नाम ही उनकी पहचान बन गया है और आज भी जबलपुर में लोग उन्हें जिज्ञासा कहकर ही पुकारते हैं। उनकी दुकान में नर्सरी से लेकर स्नातकोत्तर, व्यवसायिक प्रशिक्षण और साहित्य की पुस्तकें होती थी। उनके पसंदीदा प्रकाशकों में राजकमल (दिल्ली), राजपाल (दिल्ली), लोकभारती (इलाहाबाद) आदि थे, जहां से वह हुण्डी पर किताबें मंगवाया करती थीं। उन्होंने कहा, कि उस वक्त रजिस्ट्री करने तक की जानकारी नहीं थी। एक बार तो उन्होंने बैंक ड्राफ्ट सादा लिफाफे में रखकर साधारण डाक से प्रकाशक को भेज दिया। गनीमत थी, कि लिफाफा अपने ठिकाने पर पहुंच गया। मनोरमाजी कहती हैं, कि उन्होंने काम करते हुए सीखा। पहले से उन्हें प्रबंधन का कोई तर्जुबा नहीं था। लेकिन उनका काम सिर्फ पुस्तकों को बेचना ही नहीं था, बल्कि वे छात्रों को एक अभिभावक की तरह सलाह भी देती थीं। उनकी दुकान में काम करने वाले भी तीन विद्यार्थी थे। दुकान का संचालन करने के साथ-साथ उन्होंने गृहिणी के रूप में अपनी भूमिका को कायम रखा। घर में वे केंद्रीय भूमिका में बनी रहींं। दो बेटे संजय और रोहित तथा एक बेटी स्वाति की परवरिश की जिम्मेदारी भी उन पर थी। सन् 1980 उन्होंने अपनी बेटी स्वाति की शादी भी की और अपने छोटे बेटे को अमेरिका भेजा। इस बीच एक हृदय विदारक घटना उनके साथ घटी, उनके बड़े बेटे संजय की असमय ही मृत्यु़ हो गई, जिसका सदमा बरदाश्त न कर पाने के कारण सन् 1982 में उनके पति भी चल बसे। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारीं। सब कुछ बड़ी बहादुरी से झेल गईं। दरअसल श्रीमती चौहान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्र-वधु हैं और कठिनाईयों से जूझने के संस्कार उन्हें अपनी सास से ही मिले हैं। पहले दुकान का संचालन उनके पति अजय चौहान किया करते थे। लेकिन उनकी नियुक्ति रानी दुर्गावती (जबलपुर) विश्वविद्यालय में बतौर अधिष्ठाता- छात्र कल्याण होने पर दुकान संचालन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली। पहले वे कभी-कभी अपने पति के साथ दुकान पर जाया करती थीं और वहां बैठकर वे छात्रों को व्यवहारिक ज्ञान और पुस्तकों के संबंध में जानकारी देती थींं। जबलपुर में बौद्धिक विमर्श का केंद्र बनी ‘जिज्ञासाÓ 1971 से 1991 तक चलकर बंद हो गई। क्योंकि मनोरमाजी अकेली हो गई थी और उन्हें मुंबई और अमेरिका में अपने बच्चों के हाथ भी रहना होता है। बावजूद इसके आज भी जहां महिलाएं बेहतर आजीविका के लिए अपने आस-पास के लोगों के लिए, अपने परिवार और बच्चों के लिए संघर्ष कर रही हैं, उन्हें श्रीमती चौहान से प्रेरणा मिल सकती है।