भिण्ड। यह संसार एक मेले के समान है। इस प्रकार मेले में राहगीर एक साथ मिलकर स्नेह और प्रेम के साथ आनंद मनाते हैं। उसी प्रकार पिता, पुत्र, माता, बहन, भाई सब स्वार्थ के ही साथी हैं। काम निकलने पर कोई साथ नहीं देता है। यह बात मध्यप्रदेश के भिण्ड में बतासा बाजार स्थित ऋषभ सत्संग भवन में आयोजित धर्मसभा में राष्ट्रसंत विहर्ष सागर महाराज ने कही।
उन्होंने कहा जिस तरह रात होते ही देशांतर से आए हुए पक्षी किसी पेड पर एक साथ विश्राम कर लेते हैं। सुबह होते ही अपनी-अपनी दिशाओं में उड जाते हैं। वैसी ही स्थिति परिजनों की भी है। जब तक इस देह (शरीर) में आत्मा विराजमान रहती है, तब तक हमारे सभी संगी-साथी साथ में रहते हैं। आत्मा के निकल जाने पर पत्नी, पिता सभी साथ छोड देते हैं। इस तरह से शरीर और आत्मा को अलग-अलग जानना ही अन्यत्व भावना है।
महाराजश्री ने कहा कि जब तक मौत नजर नहीं आती तब तक जिंदगी राह पर नहीं आती। गुरु बोले तो शिष्य को मौन ही रहना चाहिए। गुरु के समक्ष जितना आप कम बोलेंगे, उतना आप गुरु से प्राप्त कर पाओगे। एक अच्छे वक्ता की पहचान ही वही होती है, कि कम शब्दों में अपनी बात को विनय के साथ प्रस्तुत करें।
आचार्यश्री ने कहा कि तर्क वितर्क में दिमाग का उपयोग होता है। श्रद्घा ह्दय के द्वार को खोलती है। श्रद्घा सुमन के साथ जो गुरु के पास आते है।ं वही सब कुछ पा पाते हैं। गुरु के उपदेश से जब मन भींग जाता हैं, तो तन की पवित्रता गंगा के जल के समान हो जाया करती है। गुरु की वाणी से मन पवित्र हो जाया करता है। इसलिए गुरु की वाणी जब भी मिले उसे अवश्य सुनना चाहिए। न जाने कौन से शब्द आपके ह्दय के द्वार तक पहुंच जाए।
उन्होंने कहा कि साधना की नौका में श्रद्धा की पतवार साथ हो तो आप इस संसार सागर से पार हो ही जाओगे। कल्पना के चीर से आरपार देखा तो जा सकता है।ं लेकिन उसे ओढा नहीं जा सकता। पत्थर दिल वाले अंतरंग की भावना को नहीं समझ सकते। साधु वह होता हैं जो पत्थर की भी भावना को समझ उसे भी ठोकर नहीं मारता। उसे भी उठा कर उचित स्थान पर रखने का प्रयास करता है। गुरु की वाणी अनुभव के आधार पर मिलती है। साधुओं का चिंतन और मनन आपके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। अनुभव से जो कहा जा रहा है वह जीवन की एक सच्चाई है। साधुओं का कोई पता नहीं होता वह तो गुरु के आदेश पर आगे बढते चले जाते हैं।

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