सात माह पहले जब कमलनाथ को मध्यप्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई, तब भाजपा सरकार का सूर्य उच्च डिग्री का था। कोई भरोसा करने को तैयार नहीं था कि यह सूर्य सात महीने में अस्त हो सकता है, लेकिन नाथ की सियासी सूझबूझ, रणनीतिक कौशल और सबको साथ लेकर चलने के हुनर ने इस असंभव से लगने वाले काम को संभव कर डाला।
सात माह के भीतर पार्टी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने के सफर में कमलनाथ के साथ युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर अजय सिंह और हम उम्र दिग्विजय सिंह कदमताल करते दिखे, तब जाकर कांग्रेस का सत्ता से वनवास खत्म हो पाया। लगातार तीन चुनावों में जीत की हैट्रिक लगाकर भाजपा के पैर इस सूबे में अंगद के समान मजबूती से जम चुके थे, उसे यदि इस बार नहीं उखाड़ा जाता तो कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश भी उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल जैसी एक अबूझ पहेली बन जाता।
गुटों में बंटी कांग्रेस को एक सूत्र में पिरोया
2008 और 2013 में तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस अपनी ताकत को दहाई के अंक से आगे नहीं बढ़ा पाई थी। इसकी मुख्य वजह गुटों में बंटी कांग्रेस के विभाजित कैडर को एकता के सूत्र में पिरोकर संगठन को ताकत देने की कोशिशों का सतह पर न आ पाना था। यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि यदि कमलनाथ की जगह कोई और नेता प्रदेश अध्यक्ष बनता तो सारे गुट एक छतरी के नीचे आने से आनाकानी करते। चूंकि कमलनाथ प्रदेश में मौजूद सभी क्षत्रपों में सबसे वरिष्ठ हैं।
गांधी परिवार के करीबी
गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम करने वाले वे इकलौते सक्रिय नेता हैं, लिहाजा आलाकमान भी उनका लिहाज करता है, इसलिए उनके निर्देश मानने में किसी को दिक्कत नहीं होगी। यही वजह थी कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पूरे मनोयोग से समन्वय के काम में जुटे रहे।
जब दिग्विजय सिंह को दी नसीहत
अपने बयानों के लिए चर्चित रहने वाले सिंह ने पूरे चुनाव अभियान के दौरान ऐसा एक भी बयान नहीं दिया, जिससे कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को पलीता लगता। कमलनाथ के करीबी लोगों की बातों पर भरोसा करें तो झाबुआ में संघ के बारे में सिंह के एक विवादास्पद बयान पर जब देशभर में बवाल मचा तो नाथ ने उन्हें संभलकर बयानबाजी करने की नसीहत दे डाली। दिग्विजय सिंह पूरे समय कांग्रेस में गुटीय संतुलन बनाते दिखे। बागियों को साधने में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।
पार्टी में दिखी एकजुटता
ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, वे भी नाथ के साथ कदमताल करते हुए कांग्रेस की मजबूती के लिए पूरे सूबे में रोड शो के जरिए बदलाव की जमीन तैयार करते दिखे। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह भले खुद चुनाव नहीं जीत पाए, लेकिन कांग्रेस को जिताने में उनका रोल भी महत्वपूर्ण रहा। सुरेश पचौरी से लेकर विवेक तन्खा भी अलग-अलग भूमिका में कांग्रेस की बेहतरी में जुटे रहे।
जिले से लेकर बूथ तक संगठन का ढांचा खड़ा किया
कमलनाथ शुरू के तीन चार माह संगठन की कसावट में व्यस्त रहे। उन्होंने जिले से लेकर बूथ तक संगठन का ढांचा खड़ा किया। इस बीच वे अलग-अलग सामाजिक संगठनों से भी मेल-जोल बढ़ाते रहे। कर्मचारी, मजदूर व्यापारी संगठनों तक वे कांग्रेस को लेकर गए और उनके वोट पाने के जतन किए। कांग्रेस आज जिस मुकाम पर खड़ी नजर आ रही है, उसमें इन प्रयासों की बड़ी भूमिका रही।
किसानों की कर्जमाफी का दांव बना गेमचेंजर
किसानों की कर्जमाफी का दांव जो इस चुनाव में गेमचेंजर बना, वह भी इसी टीम की दिमागी उपज थी। इसमें कोई शक नहीं कि नाथ ने अध्यक्ष बनने के छह माह के भीतर पूरी पार्टी को चार्ज कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछले चुनाव तक जिन मतदान केंद्रों पर कांग्रेस के पोलिंग एजेंट नजर नहीं आते थे, वहां इस बार पार्टी दमदारी के साथ नजर आई। यह सही है कि कांग्रेस पूर्ण बहुमत लाने से थोड़ा पिछड़ गई, बगैर किसी लहर अंडर करंट के भाजपा से बढ़त हासिल करना भी कम बड़ी बात नहीं है। अब वे मुख्यमंत्री बन गए हैं।