भोपाल मध्यकालीन युग के कवि संत रविदास ने उनके लिए बनाए जा रहे 100 करोड़ रुपए के मंदिर (Temple) के लिए सहमति दी होगी या नहीं? यह जान पाना तो अब संभव नहीं है, लेकिन मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार ने चुनावी साल में इस मंदिर को मंजूरी जरूर दे दी है.

कई राज्यों में संत रविदास के अनुयायियों की अच्छी-खासी तादाद है. अनुसूचित जाति (SC) के लोग इन्हें काफी मानते हैं, जिनकी मध्य प्रदेश में आबादी करीब 16 प्रतिशत है. संत रविदास का मंदिर सागर के पास बडतुमा गांव में बनाने का फैसला लिया गया है. इसे एमपी के पिछड़े बुंदेलखंड इलाके का प्रवेश द्वार भी माना जाता है, यहां संत रविदास के फॉलोअर्स काफी संख्या में हैं.

मंगलवार को सिगरौली, बालाघाट, श्योपुर, धार और नीमच से एक साथ समरस्ता (सद्भाव) यात्राओं को हरी झंडी दिखाई गई. अलग-अलग शहरों में सीएम शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री और चुनाव प्रबंधन समिति के अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर, राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, शहरी विकास मंत्री भूपेन्द्र सिंह, एससी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल सिंह आर्य और संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने इसकी शुरुआत की. 11 अगस्त को यह रैली समाप्त होगी और 12 अगस्त को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर की आधारशिला रखेंगे.

अगले 18 दिनों में समरसता यात्राएं प्रदेश के 52 में से 46 जिलों से होकर गुजरेंगी. 244 स्थानों पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय नेताओं के साथ संतों की मौजूदगी में जनता से संवाद किया जाएगा. 55 हजार गांवों से मिट्टी और एक मुट्ठी अनाज लाया जाएगा, नदियों और जलाशयों से पानी भी आएगा, जिनका उपयोग मंदिर के निर्माण में किया जाएगा.

जुलूस में शामिल रथों में संत रिवादास का चित्र, चरण-पादुका और एक कलश होगा. चुनाव से पहले निकल रही इस यात्रा के दौरान अनुसूचित जनजातियों के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं के विवरण वाले फोल्डर बांटे जाएंगे.

आज भी बुंदेलखंड के सामंती इलाकों के साथ-साथ मध्य प्रदेश के कई इलाकों में भी जातिगत भेदभाव व्याप्त है. ऐसी घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं, जब दलित दूल्हों की बारात ऊंची जातियों के प्रभुत्व वाले इलाकों से गुजरती हैं और उन्हें घोड़ी से उतार दिया जाता है. बुंदेलखंड को पीछे भी रख दिया जाए तो इंदौर जैसे बड़े शहर के करीबी उज्जैन जिले तक में ऐसे नजारे आम हैं.

बीजेपी की इस यात्रा की पूर्व संध्या पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एमपी में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार का मुद्दा उठाया. उन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का हवाला देते हुए यह दावा किया. खड़गे ने सीधी में भाजपा के ब्राह्मण कार्यकर्ता के आदिवासी पर पेशाब करने वाले वीडियो और छतरपुर में दलित पर मानव मल लगाने वाले मामले को भी हाइलाइट किया.

खड़गे ने आरोप लगाया कि लंबे समय तक भाजपा शासन में निचली जातियों का अपमान किया गया. हालांकि, भाजपा ने खड़गे पर पलटवार करते हुए कहा कि कांग्रेस शासित राजस्थान में दलितों के खिलाफ अत्याचार के सबसे ज्यादा केस सामने आते हैं.

दलितों पर अत्याचार को लेकर राजनीतिक दलों का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना आम है. सीएम शिवराज ने फरवरी में सागर में जब संत रविदास महाकुंभ में प्रस्तावित मंदिर की घोषणा की तो उन्होंने कमलनाथ पर अल्पकालिक कांग्रेस सरकार के दौरान हुए कार्यक्रम में संतों के अपमान का आरोप लगाया. बता दें कि कांग्रेस सरकार ने दलितों को लुभाने के लिए फरवरी 2020 में रविदास महाकुंभ का आयोजन किया था. शिवराज ने कहा कि कमलनाथ ने एकत्रित हुए संतों का अभिनंदन नहीं किया और श्रद्धा दिखाने से भी इनकार कर दिया.

दरअसल, मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए 35 निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित हैं, लेकिन समुदाय का 20 से ज्यादा सीटों पर अच्छा-खासा प्रभाव है. 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस ने इन सीटों में से क्रमश: 18 और 17 सीटें जीती थीं. जबकि 2013 में बीजेपी 28 सीटें जीतने में कामयाब रही थी.

2018 के चुनावों से पहले, एससी समुदाय ने ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सत्ताधारी भाजपा से खुद को दूर कर लिया था. यहां जाति-संबंधित तनाव आम बात है. 2 अप्रैल 2018 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कथित रूप से कमजोर करने के विरोध में दलित संगठन सड़कों पर उतर आए थे. भिंड, ग्वालियर और मुरैना जिलों में तोड़फोड़ और आगजनी के बीच सात लोगों की जान चली गई थी. उस साल नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों में, भाजपा मुरैना, भिंड, दतिया, शिवपुरी और ग्वालियर जिलों में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी सीटें हार गई थी.

बहुजन समाज पार्टी (BSP) के कुछ उम्मीदवारों को 10 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. हालांकि, उत्तर प्रदेश की सियासत में पैठ रखने वाली पार्टी 230 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी. 2018 के अंत और 2020 की शुरुआत में 15 महीने की अवधि को छोड़कर, 2003 से राज्य में शासन करने वाली भाजपा ने पहले भी एससी समुदाय को लुभाने की कोशिश की थी. भाजपा ने 2007 में इंदौर के पास डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की जन्मस्थली महू में पहला दलित महाकुंभ आयोजित किया था. इस शहर और विधानसभा क्षेत्र का नाम अब उनके नाम पर किया जा चुका है.

1891 में जन्मे भीमराव अम्बेडकर ने अपने जन्मस्थान पर बहुत कम समय बिताया, क्योंकि उनके पिता रामजी जल्द ही सेवानिवृत्त होकर महाराष्ट्र लौट गए थे. अम्बेडकर अपने जीवनकाल में महज एक बार ही शहर लौटे थे, लेकिन उनके पास समय की इतनी कमी थी कि वह उस स्थान पर भी नहीं गए जहां उनका जन्म हुआ था.

हर साल 14 अप्रैल को अम्बेडकर के जन्मस्थान पर बीजेपी महाकुंभ का आयोजन करती है. इस साल सत्ता पक्ष ने अंबेडकर से जुड़े स्थानों को तीर्थ दर्शन योजना में शामिल किया था. इस योजना में नागपुर, जहां उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया के अलावा दिल्ली, जहां उनकी मृत्यु हुई और मुंबई, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया तीनों को शामिल किया गया है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ बीजेपी ने ही एससी समुदाय को लुभाने की कोशिश की है. कमलनाथ सरकार का कार्यकाल इतना छोटा था कि वह कुछ खास नहीं कर सकी, लेकिन पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह ने 1993 से 2003 तक अपने 10 साल के शासन के अंत में कुछ कड़े प्रयास किए थे.

दिग्विजय 2022 में दलित बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं के दो दिवसीय सम्मेलन में पहुंचे थे. इस सम्मेलन में कई घोषणाएं हुईं, जैसे 21वीं सदी में दलितों के लिए एक नया पाठ्यक्रम तैयार करना और सरप्लस जमीन को दलितों में बांटना. इसे ‘भोपाल घोषणा’ के नाम से जाना गया. हालांकि, घोषणाएं कभी आधिकारिक दस्तावेज नहीं बन पाईं.