विशाखापत्तनम । आंध्र प्रदेश की एक अदालत ने ‘2007 वाकापल्ली गैंगरेप’ मामले में 13 पुलिस अधिकारियों को बरी कर दिया है. इन पुलिसकर्मियों पर आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू जिले में 11 आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करने का आरोप लगा था. अदालत ने जांच अधिकारियों द्वारा निष्पक्ष जांच करने में बरती गई कोताही का हवाला देते हुए मामले में आरोपी सभी 13 पुलिस अधिकारियों को बरी कर दिया. 6 अप्रैल को विशाखापत्तनम में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम सह अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायालय के विशेष न्यायालय के न्यायाधीश एल. श्रीधर ने जांच अधिकारियों को ‘घटिया जांच’ करने के लिए फटकार लगाई.

11 महिलाओं ने लगाया था गैंगरेप का आरोप
20 अगस्त 2007 को आंध्र प्रदेश के अल्लूरी सीताराम राजू जिले में पुलिस ने नक्सलियो के खिलाफ एक ऑपरेशन शुरू किया था जो वाकापल्ली इलाके में चलाया था. इस ऑपरेशन में कुल 30 पुलिसकर्मी शामिल थे. उसी दौरान कोंध जनजाति (विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह के रूप में वर्गीकृत) से ताल्लुक रखने वाली 11 आदिवासी महिलाओं ने आरोप लगाया था कि पुलिसवालों ने बंदूक की नोंक पर उनके साथ गैंगरेप किया था. इसी मामले में अब 16 साल बाद पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया गया. हालांकि कोर्ट ने आरोप लगाने वाली महिलाओं को मुआवजा देने का भी निर्देश दिया है.

जांच में बरती गई लापरवाही
आरोपियों के खिलाफ पडेरू पुलिस थाने में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 (2) (पुलिस अधिकारी द्वारा बलात्कार), और एससी / एसटी (पीओए) अधिनियम की संबंधित धाराओं के तहत एक आपराधिक मामला दर्ज किया गया था. धीमी जांच गति के बाद आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने जांच को आपराधिक जांच विभाग (सीबी-सीआईडी) की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया था. जांच प्रक्रिया में कई खामियां बरती गईं जिसमें देरी से मेडिकल टेस्ट की चूक भी शामिल था. बाद में एजेंसी ने एक अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें कहा गया कि बलात्कार की कोई घटना नहीं हुई थी.

2019 में शुरू हुआ मुकदमा
इस मामलें में जांच अधिकारियों द्वारा किस कदर लापरवाही बरती गई इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 27 अगस्त 2007 को राज्य सरकार ने आरोपों की जांच का जिम्मा विशाखापट्टनम के डिप्टी एसपी (ग्रामीण) बी आनंद राव को सौंपा. लेकिन राव 8 सितंबर तक एक बार भी घटनास्थल पर नहीं गए. अदालत ने इस पर तल्ख टिप्पणी की और कहा कि 17 दिनों तक अपराध की जगह को ना ही सुरक्षित किया गया और ना ही कोई सबूत एकत्र किया गया. अदालत ने कहा कि मामले में 12 सालों तक आरोपियों की पहचान ही नहीं करवाई गई. जब फरवरी 2019 में मुकदमा शुरू हुआ तो कोर्ट ने आरोपियों की पहचान कराने का आदेश दिया.