सोने पर हम हिंदुस्तानी आज से नहीं, सदियों से फिदा हैं। पाते ही बौरा जाते हैं। उसकी मादकता हम पर छाई है। जुग-जमाना बदल गया। लेकिन यह उतरने का नाम ही नहीं ले रही। इसीलिए भारत अब भी दुनिया में सोने का सबसे बड़ा खरीदार है। चीन तेजी से बढ़ रहा है, फिर भी नंबर दो पर हैं। भारत में सोने की औसत सालाना खपत 800 टन (8 लाख किलो!!!) है। चीन में यह 600 टन के आसपास है। वैसे, विश्व स्वर्ण परिषद के मुताबिक पिछले साल 2010 में भारत में सोने की खपत 963 टन थी, जबकि चीन में 706 टन। भारत और चीन दोनों मिलकर दुनिया के सोने का 52 फीसदी हिस्सा खपाते हैं। लेकिन दोनों देशों में सोने के पीछे की सोच व रिवाज में काफी अंतर है।
भारत साल भर में केवल 4 टन नया सोना पैदा करता है, जबकि चीन में सोने का उत्पादन पिछले साल 351 टन रहा है। सोने के प्रति चीन के लोगों का आकर्षण अभी हाल में बढ़ा है और वे इसमें वित्तीय मकसद से निवेश करते हैं। मुद्रास्फीति के असर से बचने के लिए, अपनी बचत को सुरक्षित रखने के लिए। वहां तो सोने का क्रेज इस कदर बढ़ गया है कि अब जगह-जगह सोने के सिक्के व छड़े बेचनेवाले एटीएम लगाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ भारत में सोने की खरीद सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वजहों से की जाती है। शादी-ब्याज, आभूषण, भगवान को चढ़ावा। मंदिरों में सोने के भंडार। सब कुछ यहां परंपरा से है।
इधर अब लोगबाग सोने को सुरक्षित समझकर निवेश भी करने लगे हैं। पिछले दस सालों में सोना छह गुना से ज्यादा बढ़ गया है तो हर कोई उसकी तरफ देखकर हाय-हाय करेगा ही! अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोना साल 2001 में 271.04 डॉलर प्रति ट्रॉय औंस (31.1034768 ग्राम) पर था। अभी अगस्त 2011 में 1888.70 डॉलर प्रति औंस तक जाने के बाद फिलहाल 1666.16 डॉलर प्रति औंस पर है। इस दौरान रुपए-डॉलर की विनिमय दर कमोबेश स्थिर है तो हर भारतीय को यह फायदा साफ-साफ दिख रहा है। 2001 में एक डॉलर 47.23 रुपए का था। अभी 49.13 रुपए में मिल रहा है।
अब त्योहारी का सीजन शुरू हो चुका है। फिर शादी-ब्याज की सीजन शुरू हो जाएगा। इसलिए अगले कुछ महीने लोगबाग सोने के जेवरात खरीदने में जुटे रहेंगे। एक तबका अब गोल्ड ईटीएफ और ई-गोल्ड वगैरह में निवेश करने लगा है। सभी को लगता है कि जैसे पिछले दस सालो में सोना छह गुना हुआ है, वैसे ही अगले दस साल में दोगुना-तिगुना तो हो ही जाएगा। यहां ज्यादा कुछ न कहकर मैं बस कुछ तथ्य पेश करना चाहता हूं।
1981 में सोना 850 डॉलर प्रति औंस तक चला गया था। लेकिन बाद के बीस सालों में 2001 तक गिरकर 250 डॉलर प्रति औंस तक चला गया। हम भारतीयों को सोने में आई इस 70 फीसदी से ज्यादा का गिरावट का अहसास नहीं हुआ क्योंकि जो डॉलर 1981 में 8 रुपए का था, वही 2001 में औसतन 45 रुपए रहा था। इसलिए 1981 में प्रति औंस जो सोना हमें 6800 रुपए (2186 रुपए प्रति दस ग्राम) का पड़ रहा था, वह 2001 में औसतन 11,250 रुपए (3670 रुपए प्रति दस ग्राम) का पड़ने लगा। हमें कोई फर्क नहीं पड़ा। बल्कि हमारे सोने का मूल्य बढ़ गया। लेकिन इसकी मुख्य वजह थी रुपए-डॉलर की विनिमय दर।
सोने में निवेश करने से पहले हमने एक बात बहुत अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि आप तार्किक रूप से इसका मूल्य नहीं आंक सकते। आप प्रॉपर्टी में धन लगाते हैं तो उस पर आपको किराया मिल सकता है। एफडी या बांड में लगाएंगे तो ब्याज मिलेगा। शेयरों में लगाएंगे तो लाभांश मिलेगा। कंपनी की कमाई (ईपीएस) बढ़ने के साथ शेयरों का असली मूल्य बढ़ जाएगा। लेकिन सोने में ऐसा कुछ नहीं है। उसमें कोई कैश-फ्लो नहीं है, बल्कि उसको रखने का खर्चा अलग से लगता है। दुनिया का कोई भी विश्लेषक तर्क से नहीं बता सकता कि सोने का दाम इस समय कितना वाजिब है, कितना नहीं। इसलिए सोना सिर्फ और सिर्फ सट्टेबाजी की चीज है। सट्टेबाज ही इसे चढ़ाते-गिराते हैं।सोने के दाम हमेशा मूलतः डॉलर में ही तय होते हैं। इसलिए डॉलर कमजोर हुआ तो सोने महंगा होने लगता है। अमेरिका में डॉलर का उठना गिरना वास्तविक ब्याज दरों (मुद्रास्फीति और ब्याज दर का अंतर) से तय होता है। असल में दुनिया भर की सरकारें और कंपनियां व बड़े निवेशक डॉलर को सुरक्षित मानकर अमेरिका सरकार प्रतिभूतियों – ट्रेजरी बांडों में निवेश करते हैं। अगर इन पर ब्याज दर मुद्रास्फीति से कम या बराबर है तो सोने के दाम बढ़ते हैं। वास्तविक ब्याज दर ऋणात्मक होने के कारण लोग सोने में निवेश करने लगते हैं और सोना चढ़ने लगता है। अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार आता है तो ब्याज दरें बढ़ सकती हैं। अगर यह दर मुद्रास्फीति से ज्यादा हो गई तो सोना जमींदोज हो सकता है।
अमेरिका में ऋणात्मक ब्याज दरों और सोने के भावों के रिश्ते को मुद्रास्फीति और सोने का रिश्ता समझ लिया जाता है जो महज एक भ्रम है। मुद्रास्फीति के असर को काटने में सोना कैसे नाकाम रहा है, इसका एक उदाहरण पेश है। 1980 से 2005 के बीच में अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक या महंगाई दोगुनी से ज्यादा हो गई। लेकिन इस दौरान सोना का मूल्य करीब 27 फीसदी गिर गया। सोचिए, उनका क्या हाल हुआ होगा जिन्होंने महंगाई के असर से बचने के लिए सोने में निवेश किया होगा।
तमाम फाइनेंशियल प्लानर समझाते हैं कि किसी भी निवेशक को अपने पोर्टफोलियो को कम से कम 10 फीसदी हिस्सा सोने में निवेश कर देना चाहिए। भौतिक सोने में नहीं, तो गोल्ड ईटीएफ या ई-गोल्ड में लगा देना चाहिए क्योंकि वहां वह एकदम सुरक्षित है। लेकिन हिसाब लगा लीजिए कि इस निवेश पर दस-बीस साल में मिलेगा कितना? आंकड़ों के अनुसार 1991 से लेकर अब तक के बीस सालों में सोने पर मिले रिटर्न की सालाना चक्रवृद्धि दर 8.9 फीसदी है, जबकि इसी दौरान सेंसेक्स की सालाना चक्रवृद्धि दर 16 फीसदी रही है।
यह सारा कुछ बताने का मेरा मकसद आपको सोने से दूर करना नहीं है, बल्कि आपको सोने की पिनक से, उनकी मादकता से मुक्त करना है। सोना मूलतः एकदम निठल्ला है। जब दुनिया में आर्थिक संकट चल रहा होता है, तब यह बढ़ता है। स्थितियां सामान्य होते ही वो फिर से कहीं कोने में सोफे पर लुढ़क जाता है। क्या ऐसे निठल्ले दामाद से आप अपनी बचत बिटिया को ब्याहना चाहेंगे? आज सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसा कोई मुंहफट महाकवि होता तो पूछ बैठता – अबे सुन बे, सोने! तेरी औकात क्या है?
अगर चीन व भारत समेत दुनिया के तमाम देशों के केंद्रीय बैंक अपने खजाने में सोना भर रहे हैं तो उन्हें भरने दीजिए क्योंकि इससे उन्हें अपनी मुद्रा से लेकर मुद्रास्फीति तक को संभालने में शायद मदद मिल जाए। लेकिन हमारे-आप जैसे लंबे समय के निवेशकों के लिए सोने में कोई दम नहीं है। हां, खुद पहनने या बेटी की शादी के लिए जेवरात खरीदने हैं तो उसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन निवेश के लिए सोने पर धन लुटाने में कतई समझदारी नहीं है।