नई दिल्ली: कांग्रेस सहित सात राजनीतिक दलों की ओर से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ दाखिल महाभियोग प्रस्ताव में जो आरोप हैं, उनकी सत्यता जांच का विषय हो सकती है, लेकिन अब वे आरोप-प्रत्यारोप के घेरे में जरूर आ गए हैं। अब जब उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, भविष्य में भी चाहे-अनचाहे इन पर बहस होती रहेगी। सवाल अब यह भी होगा कि सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता पर कितने प्रश्नचिन्ह रहते हैं। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव में विरोधी दलों ने जो पांच कारण गिनाए थे उनमें दो आरोप व्यक्तिगत अनियमितता से संबंधित थे।
तीसरा आरोप उनके आचरण को लेकर था। दो आरोप अपेक्षाकृत गंभीर हैं जिनमें चीफ जस्टिस के रूप में उनके फैसलों के उद्देश्यों पर सवाल खड़े किए गए हैं। महाभियोग प्रस्ताव में जो आरोप हैं, उसकी यह ध्वनि है कि सत्ता पक्ष हमारी न्यायिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर रहा है। उल्लेखनीय है कि पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीश भी इसी तरह की शिकायतों को लेकर मीडिया के सामने आए थे। आरोपों में सच्चाई कितनी है यह कह पाना मुश्किल है, लेकिन देश की इस सर्वोच्च संस्था के मुखिया पर लगे पक्षपात के आरोपों से आम आदमी स्तब्ध है। राजनीतिक दलों के आचरण से भी यह नहीं लगता कि वे सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। आने वाले दिनों में सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी राजनीतिक पार्टी का अगला कदम इस बहस को बढ़ाएगा और इस विशाल संस्था की नींव से लेकर ऊपरी मंजिल की परत खोलेगा।
वैसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में उच्च तथा उच्चतम न्यायालय के जजों के खिलाफ पहले भी महाभियोग लाए जा चुके हैं। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पहली बार लाया गया। आजाद भारत में किसी जज को कदाचार के आरोप में उसके पद से हटाने के लिए पहली बार 1993 में महाभियोग पेश किया गया। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी. रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव पेश हुआ लेकिन उसे पारित नहीं किया जा सका। वर्ष 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र सेन के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग पेश हुआ। सुप्रीम कोर्ट की एक कमेटी ने विधिवत जांच के बाद उन्हें कदाचार का दोषी ठहराया था। महाभियोग पर चर्चा के बीच ही सौमित्र सेन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश पी.डी. दिनाकरण पर भी पद का दुरुपयोग करके जमीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे कदाचार के आरोप लगे थे। इस मामले में भी राज्यसभा के ही सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिए कार्यवाही के लिए याचिका दी थी। जनवरी, 2010 में गठित जांच समिति के एक आदेश को उन्होंने उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दी। इस बीच वे 2010 में सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिये गये। बावजूद इसके महाभियोग की कार्रवाई नहीं रुकी तो 29 जुलाई, 2011 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायाधीश सी.वी. नागार्जुन रेड्डी और गुजरात हाईकोर्ट के न्यायाधीश जे.बी. पार्दीवाला के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिए राज्यसभा में प्रतिवेदन दिए गए।
न्यायमूर्ति पार्दीवाला के खिलाफ तो उनके 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में आरक्षण के संदर्भ में की गई टिप्पणियों को लेकर यह प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन मामले के तूल पकड़ते ही न्यायमूर्ति पार्दीवाला ने 19 दिसंबर को इन टिप्पणियों को फैसले से निकाल दिया था। वर्ष 2015 में एक महिला जज ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जज ए.के. गांगुली के खिलाफ यौन उत्पीड़ऩ का आरोप लगाया था। इसी आरोप को आधार बनाते हुए जस्टिस गांगुली के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग का प्रस्ताव दिया था। जब महाभियोग के आधार पर संसदीय समिति ने जांच कमेटी गठित की तो इस्तीफा देने के बजाय जस्टिस गांगुली ने जांच का सामना करने का फैसला लिया। दो साल तक जांच चली, लेकिन एक भी आरोप साबित नहीं हो सका। इस तरह महाभियोग प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया।