भिण्ड। जिसके पास परिग्रह कम होता है वह भक्ति व भगवत्ता की ओर अग्रसर होता है। परिग्रहधारी भक्ति की ओर से उदासीन हो जाता है। शक्ति के अनुसार त्याग करें, सुपात्र को दान दें। शास्त्रों में जिन मंदिर, चतुर्विद संघ, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हेतु दिया दान श्रेष्ठ दान बताया है। जिस दान से स्व व पर का उपकार हो वही सच्चा दान है। बाजार में तो शक्ति से अधिक खर्च करते हैं परंतु दान देने में विचार करते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। जो दान हमारे द्वारा किया जाता है उसका पुण्य में हमें ही मिलता है। अतः दान का पुरुषार्थ कर लक्ष्य की ओर बढें । यह बात भिण्ड शहर के बतासा बाजार स्थित ऋषभ सत्संग भवन में चल रहे प्रवचन में राष्ट्रसंत विहर्ष सागर महाराज ने कही।
उन्होंने कहा कि हम मोक्ष की यात्रा की ओर चल पडे हैं। संसार की असारता को जानने के बाद उसको अंगीकार करने के भाव बनाएं। संसार दुःखमय है यह जानते हुए भी हम सुख ढूंढते हैं और कई जन्म नष्ट कर देते हैं। वास्तविकता को समझना नहीं चाहते। आज मनुष्य पाप करने से नहीं डरता, उसके फल से डरता है। पाप से दूर रहें, संसार से भयभीत रहें तो ही सुख की प्राप्ति होगी। शरीर के प्रति विरक्ति का भाव रखें, धर्म मार्ग की ओर बढें।
महाराज श्री ने कहा कि मनुष्य जीवन में खूब भोग-विलास करने के बाद भी तृत्प नहीं होता। धर्म -आराधना का सुख ही सास्वत सुख है। जो व्यक्ति धर्म के मार्ग पर आगे बढते हुए संयम ले लेता है या गृहस्थ जीवन में रहते हुए खूब धर्म -आराधना करता है वह सुखी जीवन जीता है इसलिए जीवन में भोग-विलास को छोडकर धर्म-आराधना का मार्ग अपनाना चाहिए। महाराज श्री ने कहा कि आपने कहा कि भगवान महावीर ने हमें धर्म-आराधना व संयम का जीवन जीने का जो मार्ग बताया है वह कदापि गलत नहीं हो सकता। भगवान ने 12 वर्ष कठोर धर्म-साधना के बाद केवल ज्ञान पाया था उसके बाद 30 वर्षों तक देशनाएं दीं। उनके बताए मार्ग पर चलना आत्मा में उत्पन्न विकारों को शांत करता है। संयमी कभी आराधना के मार्ग का त्याग नहीं करता है।