कानपुर। कानपुर देहात के बेहमई गांव में 39 साल पहले हुए हत्याकांड में सेशन कोर्ट अब 18 जनवरी को फैसला सुनाएगा। इसमें सोमवार को फैसला आना था। बचाव पक्ष ने दलीलें पेश करने के लिए कोर्ट से वक्त मांगा। इसके बाद कोर्ट ने फैसले की तारीख आगे बढ़ा दी। दलीलें रखने के लिए वकीलों को 16 जनवरी तक का समय दिया गया। 14 फरवरी 1981 को हुए हत्याकांड में फूलन ने अपने 35 साथियों की मदद से 20 लोगों की हत्या कर दी थी। फूलन ही मुख्य आरोपी थी, लेकिन मौत के बाद उसका नाम हटा दिया गया। बचे हुए 5 आरोपियों में से एक की मौत हो गई है। केस की शुरुआत में 6 गवाह थे, इनमें अब 2 जिंदा बचे हैं।

फैसले के मद्देनजर कोर्ट में रविवार सुबह से ही बेहमई के ग्रामीणों का जमावड़ा लग गया था। आरोपियों के वकील गिरीश चंद्र दुबे ने कहा, आज फैसला आने की उम्मीद नहीं थी। आज लिखित बहस होनी थी। अग्रिम तारीख 18 जनवरी तय की गई है। उसी दिन फैसला आएगा।

बेहमई हत्या कांड की मुख्य आरोपी फूलन देवी थी। उसने 1983 में मध्य प्रदेश में आत्मसमर्पण किया था। 1993 में फूलन जेल से बाहर आई। इसके बाद मिर्जापुर लोकसभा सीट से दो बार सपा के टिकट पर सांसद बनी। 2001 में शेर सिंह राणा ने फूलन देवी की दिल्ली में हत्या कर दी थी। इसके बाद फूलन का नाम केस से हटा दिया गया। 35 आरोपियों में से सिर्फ 5 पर केस शुरू हुआ। इनके नाम श्याम बाबू, भीखा, विश्वनाथ, पोशा और राम सिंह थे। राम सिंह की 13 फरवरी 2019 को जेल में मौत हो गई। पोशा जेल में है। तीन आरोपी जमानत पर हैं।

फूलन के पिता की 40 बीघा जमीन पर चाचा मैयाराम ने कब्जा किया था। 11 साल की उम्र में फूलन ने चाचा से जमीन मांगी। इस पर चाचा ने फूलन पर डकैती का केस दर्ज करा दिया। फूलन को जेल हुई। वह जेल से छूटी तो डकैतों के संपर्क में आई। दूसरे गैंग के लोगों ने फूलन का गैंगरेप किया। इसका बदला लेने के लिए फूलन ने बेहमई हत्याकांड को अंजाम दिया। इसी वारदात के बाद फूलन बैंडिट क्वीन कहलाने लगी। हालांकि, जिस जमीन के लिए फूलन बैंडिट क्वीन बनी.. वह उसके परिवार को आज भी नहीं मिल सकी है।
इस केस में इतनी देरी क्यों हुई?

डीजीसी राजू पोरवाल बताते हैं कि 14 फरवरी 1981 को मुकदमा दर्ज हुआ। घटना के बाद बड़े स्तर पर कार्रवाई हुई। एनकाउंटर हुए और कई डकैत ऐसे गिरफ्तार हुए, जिनका नाम बेहमई कांड की एफआईआर में नहीं था। तब शिनाख्त करवाई गई। गवाहों को जेलों में ले जाकर पहचान करवाई गई। उस शिनाख्त के आधार पर एक के बाद एक आरोप पत्र दाखिल होते रहे। उसमें लंबा समय लगा। ट्रायल की यह प्रक्रिया है कि जब तक सभी आरोपी नहीं इकठ्ठा होंगे, तब तक आरोप तय नहीं होंगे। ऐसे में कभी कोई गायब रहता तो कभी कोई बीमार रहता तो कभी किसी तारीख पर किसी आरोपी की मौत की खबर आ जाती थी। कई ऐसे भी आरोपी रहे, जिनके बारे में जानकारी तो मिली, लेकिन वे फरार हो गए। 2012 में यह केस मेरे पास आया। आरोपियों की फाइल अलग करवाई और फरार लोगों की संपत्ति की कुर्की की करवाई। 5 आरोपियों के खिलाफ अगस्त 2012 में आरोप तय हुए। तब तक 33 साल बीत चुके थे। गवाहों को लाना और जिरह कराना मुश्किल था।

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