इंदौर ! जो कभी घूँघट डाले अपने सिर पर गाँवभर का मैला उठाकर जैसे-तैसे अपने और बच्चों के लिए दो रोटी का इंतजाम कर पाती थी, उसी तस्लीम ने आज गाँवभर की तस्वीर और सोच दोनों ही बदल दिए हैं। अब यहाँ न छुआछूत है और न ही औरतों को सिर पर मैला ढोने जैसा लिजलिजा काम करना पड़ता है। वे इज्जत की दो रोटी खाती हैं और उनके बच्चे भी अब स्कूलों में पढ़-लिख रहे हैं।
इंदौर से 65 किमी दूर उज्जैन जिले का गाँव कायथा, तस्लीम का परिवार मुस्लिमों में अछूत मानी जाने वाली हैला समाज से है. 18 साल की उम्र में वह दुल्हन बनकर आई तो उसने देखा कि उसके समाज की औरतें कच्चे शौचालयों का मैला अपने सिर पर ढोती हैं, तस्लीम ने कहा कि वह ये काम नहीं करेगी पर घर के लोगों ने समझाया. परिवार के पेट की खातिर यह काम करना मंजूर किया। उसे बदले में मिलती थी हर घर से एक रोटी। कभी-कभार बासी दाल-भाजी। और महीने के दस-बीस रूपए। लोग छुआछुत करते। रोटी ऊपर से डाली जाती। आँगन तक में नहीं आने देते। बच्चों से अछूतों की तरह व्यवहार होता। सरकारी स्कूल में उन्हें टाटपट्टी से नीचे सबसे पीछे बैठाया जाता। शिक्षक और दूसरे बच्चे उन्हें छूते नहीं थे। उनसे स्कूल के शौचालयों की सफाई करवाई जाती। मस्जिद में नमाज के लिए सबसे पीछे जगह दी जाती। वे वहां मटके से पानी पीना तो दूर छू भी ले तो उस मटके को ही फोड़ देते। कब्रिस्तान की जगह नहीं होने से बस्ती में ही घर के सामने गड्ढा खोदकर मुर्दे दफनाने पड़ते। वहीं खाना-पीना, सोना सब होता। बच्चे डरते। पर क्या करते। तस्लीम अकेली नहीं थी, कायथा में ही ऐसी 25 औरतें थी तो आसपास के गाँवों में सैकड़ों।
2003 -04 में पहली बार आसपास गांवों से औरतों ने सिर पर मैला ढोने से इंकार करना शुरू किया। संस्था जन साहस के आसिफ ने कुछ अन्य संगठनों के साथ गरिमा अभियान शुरू किया, गरिमा यानी इज्जत से जीने की कोशिश। यह आसान नहीं था। कार्यकर्ता गाँव-गाँव जाते, वाल्मीकी तथा मुस्लिम जाति हैला परिवारों में बातचीत करते पर कोई राजी नहीं होता। पहला ही सवाल होता-यह छोड़ देंगे तो क्या खाएंगे और बच्चों को क्या खिलाएंगे। और दूसरी बड़ी बात-गाँव के दबंग समाज के सामने हम कैसे इससे मना कर सकेंगे। वे लोग फिर हमें यहाँ रहने देंगे। बात सही भी थी. फिर भी कहीं-कहीं रास्ता निकलने लगा। तस्लीम ने भी अपने गाँव में मैला ढोने के काम के खिलाफ अलख जगाई। उसने तो काम छोड़ा ही, बाकी 25 महिलाओं को भी मुक्ति दिलाने में जुटी रही और अंतत: गाँव को इस कलंक से मुक्त कर दिया। इससे गाँव के लोग नाराज़ हो गए. उसका जीना मुश्किल कर दिया। दबंगों का कहना था कि पुरखों के जमाने से तुम लोग यह काम कर रहे हो, इसे बंद कर तुमने अच्छा नहीं किया। अब इसके परिणाम भुगतना पड़ेंगे।
तस्लीम बताती हैं कि वे दिन हमारे सबसे मुश्किल भरे दौर के बीते। कुछ रातें तो हमने सिर्फ उबला हुआ चावल खाकर बिताई। हर सुबह यही सवाल खड़ा होता कि खाएंगे क्या। मजदूरी करने जाते तो कोई काम पर नहीं रखता। सब्जी-भाजी बेचते तो कोई खरीदता नहीं। हमने भी सोच लिया था कि अब चाहे जान चली जाए पर इस धंधे में वापस नहीं लौटेंगे। हमने वो काम करने की भी हामी भर दी, जिसे दूसरे मजदूर नहीं करते थे। कम दामों में ज्यादा काम किया. पत्थर और तगारियां ढोई। खूब मेहनत की तो काम मिलने लगा।
गर्मियों में बस्ती की कुण्डी में पानी सूख गया. एक खेत के कुँए से हमें पानी तो मिल जाता पर वहां से पानी लाना मुश्किल था। तस्लीम ने बस्ती की औरतों को इक_ा किया और पंचायत में सरपंच के सामने समस्या रखी। सरपंच ने साफ़ कह दिया कि तुम लोगों ने मैला ढोना बंद कर दिया तो पंचायत तुम्हारी मदद नहीं कर सकती। तुम्हारी जगह जूतों में है। तस्लीम ने विरोध कर कहा कि पंचायत गाँव के हर आदमी की है। उसने थाने और तहसील में बात रखी पर अनसुनी कर दी गई। इससे सरपंच की हिम्मत बढ़ गई और उसने औरतों को अपशब्द कहे और ताना मारा कि मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तस्लीम उसका गिरेबान पकडक़र उसके साफे को गले से लपेटकर घिसटते हुए थाने तक ले गई और उसके खिलाफ प्रकरण दर्ज करवाया। गाँव की औरतों ने भी साथ दिया। पर पानी की समस्या अब भी वहीं की वहीं थी। निराश तस्लीम ने हिम्मत नहीं हारी। उसने औरतों के साथ उज्जैन- मक्सी सडक पर चक्काजाम कर दिया। पुलिस और अफसरों ने उसे धमकाया पर उसने भी कह दिया कि चाहे तो गोली मार दो पर कलेक्टर से मिले बिना यहाँ से नहीं हटेंगे।
आठ घंटे की मशक्कत के बाद आखिरकार उज्जैन कलेक्टर को वहां आना पड़ा और दो दिनों में पानी मिलने लगा। उसी साल तस्लीम ने पंचायत का चुनाव लडा। उसे मैदान से हटाने के लिए दो लाख रूपए का प्रलोभन दिया पर वह मैदान में डटी रही। चुनाव जीतने के बाद उसने औरतों को शौच के लिए बाहर जाने से रोकने के लिए सार्वजनिक शौचालय बनवाए, कब्रिस्तान के लिए सरकारी जमीन आवंटित करवाई और हर घर से बच्चे को स्कूल भेजने की मुहिम शुरू की। इस तरह एक घरेलू महिला तस्लीम ने सिर्फ मैला ढोने का काम ही नहीं छोड़ा बल्कि अब वह इलाके में औरतों के सम्मान और उनके हितों की पैरोकार बनकर उभरी है। उसने गाँव की करीब 400 औरतों को अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण दिलाया। अब इसमें से दो सौ से ज्यादा हर दिन पांच से छह घंटे काम करके सौ से डेढ़ सौ रूपए तक कमा लेती है।

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