चीन के शियामेन शहर में 3-5 सितंबर को ब्रिक्स देशों का सम्मेलन होने जा रहा है। इस सम्मेलन से करीब एक हफ्ते पहले 28 अगस्त को जब ये खबर आई कि चीनी सेना डोकलाम इलाके से पीछे हट जाएगी तो एक बात साफ हो गई कि पहली बार चीन को ये समझ में आ गया कि भारत अब 1962 का भारत नहीं है। भारत सफल कूटनीति के जरिए चीन को ये संदेश देने में कामयाब रहा कि परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में अब दादागीरी नहीं चलने वाली है।

ब्रिक्स सम्मेलन से पहले भारत ने चीन को स्पष्ट तौर पर बता दिया कि डोकलाम में तनाव और शियामेन में सम्मेलन का औचित्य समझ के बाहर है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में दुनिया के बड़े देश अमेरिका और जापान ने खुलकर कहा कि डोकलाम में यथास्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी चीन की है। इसके अलावा पर्दे के पीछे रहकर रूस ने चीन पर दबाव बनाने की कोशिश की थी। इन सब घटनाक्रम के बीच बड़ा सवाल ये है कि आतंकवाद और पाकिस्तान के मुद्दे पर चीन का रुख क्या होता है। ब्रिक्स के चार्टर में ये साफ लिखा गया है कि दुनिया की समृद्धि के लिए वैश्विक स्तर पर आतंकवाद फैलाने वालों के खिलाफ साझा कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन पिछले साल गोवा में ब्रिक्स सम्मेलन में पाकिस्तान की भूमिका पर चीन खामोश रहा। मेजबान देश होने की वजह से भारत भी कुछ खास दबाव नहीं बना पाया। लेकिन इस दफा हालात बदले हुए हैं। शियामेन में ब्रिक्स सम्मेलन से क्या कुछ निकलेगा इसे जानने से पहले आइए जानने की कोशिश करेंगे कि गोवा ब्रिक्स सम्मेलन में चीन की नीयत और उसकी भूमिका क्या थी।

2016 गोवा ब्रिक्स सम्मेलन में क्या हुआ था

अक्टूबर, 2016 में गोवा ब्रिक्स सम्मेलन के घोषणा पत्र में आतंकवाद के खिलाफ भारत के मनमुताबिक बातें नहीं आ पाई थीं। अब भारत इसकी भरपाई करने की कोशिश करेगा। इसका एक उद्देश्य यह भी होगा कि पाकिस्तान को चीन की धरती से आतंकवाद पर सख्त संदेश दिया जा सके। अब देखना होगा कि चीन अपने मित्र राष्ट्र पाकिस्तान के खिलाफ इस तरह की घोषणाओं के लिए तैयार होता है या नहीं।

गोवा ब्रिक्स बैठक के घोषणा पत्र में आतंकवाद के खिलाफ काफी सख्त संदेश दिया गया था, लेकिन भारत की इच्छा के विपरीत इसमें जैश और लश्कर जैसे आतंकी संगठनों का नाम शामिल नहीं हो पाया था, जबकि रूस और चीन के लिए सिरदर्द बने आतंकी संगठनों का नाम इसमें शामिल किया गया था। तब माना गया था कि चीन ने अपने पसंदीदा देश पाकिस्तान के समर्थन में भारत की कोशिशों पर पानी फेर दिया है। एक मेजबान राष्ट्र की बाध्यता की वजह से भारत एक सीमा से ज्यादा अपनी बात मनवाने का दबाव नहीं डाल सकता था। लेकिन, इस बार ऐसी बाध्यता नहीं रहेगी। जानकारों के मुताबिक पिछले वर्ष चीन और रूस के बीच बहुत गहरी दोस्ती थी जिसका असर ब्रिक्स घोषणा पत्र में दिखाई दिया था। इस बार भारत को रूस से ज्यादा समर्थन मिलने की उम्मीद है।

जानकार की राय

रक्षा मामलों के जानकार पी के सहगल ने कहा कि आतंकवाद के मुद्दे पर चीन ये तो चाहता है कि पूरी दुनिया उसके साथ खड़ी हो। लेकिन पाकिस्तान के मुद्दे पर वो अपने हितों को प्राथमिकता देने लगता है। पाकिस्तान के जरिए वो अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना सीपेक को पूरी करना चाहता है। इसके साथ ही चीन वैश्विक पटल पर अपने आप को एक विकल्प के तौर पर भी पेश करना चाहता है। लेकिन चीन की नीयत से दुनिया धीरे धीरे वाकिफ हो रही है। दक्षिण चीन सागर से लगे हुये देश चीन की विस्तारवादी नीति से परेशान है। इस पृष्ठभूमि में भारत ने संयम के साथ अपने इरादे और नजरिए को दुनिया के सामने रखा है। ब्रिक्स सम्मेलन के किस तरह के हालात बनेंगे इसके लिए इंतजार करना होगा। हालांकि डोकलाम के मुद्दे पर भारत के रुख से साफ हो गया है कि अब वो बराबरी के दर्जे ही संबंध को तवज्जो देगा।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान की कुर्बानियों को करे स्वीकार

डोकलाम मामले में कूटनीतिक नाकामी के बाद चीनी खेमे में बौखलाहट है। ब्रिक्स सम्मेलन से पहले चीन अब पाकिस्तान के आतंकी चेहरे पर नकाब डालने में जुट गया है। उसने गुरुवार को कहा कि पाकिस्तान से पैदा होने वाला आतंकवाद भारत और चीन के बीच विवाद का एक मुद्दा है। लेकिन ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों के सम्मेलन में आतंकवाद पर पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंताओं पर चर्चा नहीं होगी। चीन ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका की सराहना की।

चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चिनयिंग ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ किए जा रहे प्रयासों में इस्लामाबाद की नियत पर संदेह करना उचित नहीं होगा। पाकिस्तान ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कुर्बानियां दी हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान के योगदान और कुर्बानियों को स्वीकार करना चाहिए। चिनयिंग ने कहा कि जब भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की चर्चा होती है तो इस मसले पर भारत की अपनी कुछ चिंताएं हैं। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि ब्रिक्स सम्मेलन में चर्चा के लिए यह एक उचित विषय है।

ब्रिक्स देशों का तीन दिवसीय सम्मेलन रविवार (3 सितंबर) से चीन के शहर शियामेन में होना है। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चिनयिंग ने पत्रकारों से कहा कि उनका देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सहयोग बढ़ाने के लिए पाकिस्तान और अन्य देशों के साथ मिलकर कार्य करने का इच्छुक है।

मोदी-चिनफिंग मुलाकात के दिए संकेत

चीन ने गुरुवार को संकेत दिए कि ब्रिक्स सम्मेलन से इतर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात हो सकती है। चिनयिंग ने कहा कि बहुपक्षीय बैठकों के दौरान द्विपक्षीय बैठकों की व्यवस्था एक चलन है। अगर समय ने अनुमति दी तो चीन इसका समुचित प्रबंध करेगा।

ब्रिक्स सम्मेलन में कारोबार का मुद्दा रहेगा अहम

बताया जा रहा है कि इस बार ब्रिक्स सम्मलेन में कारोबार का मुद्दा काफी अहम रहेगा। पिछले वर्ष यह सहमति बनी थी कि अब सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार पर बात होनी चाहिए। पिछले एक वर्ष के भीतर सदस्य देशों के बीच कुछ बातचीत भी हुई है। इस बार शिखर बैठक में शीर्ष नेताओं की तरफ से इस बारे में साफ दिशानिर्देश मिलने के आसार हैं। वैसे भारत और चीन के अलावा ब्रिक्स के अन्य पांचों देशों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। देखना होगा कि भारत व चीन इन देशों की अर्थव्यवस्था के साथ किस तरह का सामंजस्य बिठाने के लिए तैयार होते हैं।

डोकलाम में सड़क निर्माण पर साधी चुप्पी

चीन के सैन्य प्रवक्ता ने गुरुवार को बताया कि चीनी सेना डोकलाम क्षेत्र में सीमा पर गश्त और सुरक्षा को मजबूत बनाएगी। लेकिन डोकलाम इलाके में चिकन नेक इलाके में सड़क निर्माण को लेकर सैन्य प्रवक्ता ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। डोकलाम में भारत की प्रमुख आपत्ति इसी सड़क निर्माण को लेकर थी। चीनी प्रवक्ता ने कहा कि डोकलाम घटनाक्रम के बाद चीनी सेना स्थिति पर करीब से निगाह रख रही है और सीमा पर नियंत्रण बहाल करने के कई आपात उपाय किए गए हैं।

चालबाज चीन के पहले के कारनामे

डोकलाम मसला सुलझ गया। विवादित क्षेत्र में यथास्थिति कायम हो गई। हालांकि माना जा रहा है कि ब्रिक्स सम्मेलन के दबाव में चीन ऐसा करने पर विवश हुआ। जल्द ही वह फिर कोई खुराफात कर सकता है। पूर्व के अनुभव बताते हैं कि एक विवाद के सुलझते ही वह दूसरे खड़ा करता रहा है। पेश है पुराने विवादों की फेहरिस्त

दौलत बेग ओल्डी प्रकरण

15 अप्रैल 2013 140 चीनी सैनिक लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में घुस आए। यह क्षेत्र ऐतिहासिक व्यापारिक मार्ग से जुड़ा है, जो लद्दाख और तिब्बत होते हुए पश्चिमी चीन के जिनजिआंग प्रांत स्थित तारीम बेसिन तक जाता है। चीनी सेना यहां तंबू लगाकर जम गई। भारतीय सेना ने विरोध किया। इसके बाद आइटीबीपी के जवानों को 300 मीटर की दूरी पर तैनात कर दिया गया। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक वार्ता शुरू हुई। तीन सप्ताह के बाद मामले का निपटारा हुआ।

चुमार प्रकरण

मई 2013 में दौलत बेग ओल्डी से हटने के कुछ घंटे बाद ही चीन के 300 जवान लद्दाख के चुमार क्षेत्र में घुस आए। चीनी सेना का कहना था कि भारत के टीन शेड बनाने के चलते वे यहां आए क्योंकि यह समझौते का उल्लंघन है। चीनी सैनिकों ने यहां भी अपने तंबू गाड़ लिए। यह मामला भी 21 दिनों के बाद कूटनीतिक हस्तक्षेप से सुलझाया गया।

डेमचोक प्रकरण

सितंबर 2014 में भारतीय गश्ती दल को 10 सितंबर 2014 को पता चला कि चीनी सेना ने चुमार से सटे डेमचोक में सड़क बनाने के लिए बड़े पैमाने पर सामग्री जुटाई है। इसके बाद भारतीय सेना भी वहां कैंप करने लगी। यह मसला दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के हस्तक्षेप के बाद ही सुलझ पाया। 20 दिन बाद दोनों देशों की सेनाओं ने यशास्थिति बहाल की।

लाओस के विदेश मंत्री ने चोरी छिपे भारतीय राजदूत से की थी मुलाकात

1990 के दशक में लाओस में भारत के राजदूत रहे डॉ गौरी शंकर राजहंस ने अपने निजी अनुभव को साझा करते हुए बताते है कि चीनी सरकार किस हद तक ढोंग करती है। उनका कहना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने एक पत्र भेजा था कि मीडिया में खबर आई है कि लाओस और चीन ने अपना सीमा विवाद सुलझा लिया है। मैं लाओस के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से मिलकर यह पता करूं कि लाओस ने चीन के साथ इस सीमा विवाद को कैसे सुलझाया। मैं लाओस के प्रधानमंत्री से मिला। उन्होंने विदेश मंत्री से मिलने के लिए कहा। जब वो तीन चार बार विदेश मंत्री के दफ्तर में गया तो वे टालमटोल करते रहे और एक दिन अंधेरे में वो उनके बंगले पर डरते डरते आ गए और यह देखते रहे कि कहीं कोई चीन का गुप्तचर तो उन्हें नहीं देख रहा है।

लाओस के तत्कालीन विदेश मंत्री ने डर डरकर बताया कि चीन इस क्षेत्र का सबसे मजबूत देश है और लाओस जैसा एक छोटा देश उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। चीन और लाओस के बीच एक नदी बहती है। लाओस का कहना था कि नदी के उत्तरी भाग में दोनों देशों की सीमा है। परन्तु चीन ने जबरन नदी के दक्षिणी भाग में लाओस के अंदर 50 किलोमीटर घुसकर सीमा रेखा खींच दी और कहा कि यही दोनों देशों की सीमा होगी। इस तरह लाओस को चीन के साथ सीमा विवाद समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश कर दिया। मैंने लाओस के विदेश मंत्री को कहा कि अब मैं सारी बातें समझ गया हूं। और वे मुंह अंधेरे ही वापस लौट जाएं। क्योंकि चीनी गुप्तचर उन्हें यहां देख सकते हैं और उनका नुकसान कर सकते हैं।

नरसिंहराव को पत्र के जरिये सारी बातें बता दी जिसके उत्तर में उन्होंने लिखा कि अब वे सब कुछ अच्छी तरह समझ गए हैं। कहने का अर्थ है कि चीन सदा से एक विस्तारवादी देश रहा है। वह पड़ोसी देश की जमीन हथियाने में जरा भी संकोच नहीं करता है। लाओस की तरह 1989 में चीन ने वियतनाम की जमीन हथियाने की कोशिश की। वियतनाम के बहादुर सैनिकों ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। दोनों देशों के बीच जमकर युद्ध हुआ जिसमें वियतनाम ने चीन के छक्के छुड़ा दिए और उसे बुरी तरह परास्त कर दिया। तब से चीन वितयनाम को छेड़ने की हिम्मत नहीं करता है।

1966 में चीन ने भूटान में की थी घुसपैठ की कोशिश

1966 में भी चीन ने भूटान में बड़े पैमाने पर घुसपैठ करने की कोशिश की थी। परन्तु तत्कालीन भारत सरकार ने अपनी फौज भेजकर चीन की फौज को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। इस बार भी चीन ‘डोकलाम’ में सड़क बनाने से पीछे हट गया और अपनी फौज को भी धीरे धीरे हटा रहा है। वह इस कारण कि उसे अच्छी तरह पता चल गया कि आर्थिक और सामरिक दृष्टिकोण से भारत एक अत्यन्त मजबूत देश है और यदि युद्ध हुआ तो वह भारत का मुकाबला नहीं कर पाएगा। अनेक कारणों से चीन भारत से खफा है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के साथ भारत की दोस्ती उसको रास नहीं आ रही है। जापान चीन का पुराना दुश्मन है और उसने कहा है कि यदि चीन ने इस क्षेत्र में कोई हरकत की तो वह भारत के साथ आ जाएगा।

चीन ने शायद यह सोचा था कि भूटान एक कमजोर देश है और वह जोर जबरदस्ती कर भूटान के उस क्षेत्र को हड़प लेगा जो भारत के सिक्किम और चीनी सीमा पर है। परन्तु चीन यह भूल गया कि आज की तारीख में यह उतना आसान नहीं है। भूटान के साथ भारत की अनेक संधियां हैं जिनमें साफ कहा गया है कि यदि भूटान पर कोई बाहरी हमला होता है तो भारत उसके बचाव में तुरन्त आ जाएगा और दोनों देश मिलकर दुश्मन का मुकाबला करेंगे।

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