भोपाल। मध्यप्रदेश में तीन स्थानीय निकायोंमें हुए चुनाव के नतीजे राजनीतिक तौर पर ज्यादा अहमियत भले न रखते हों, मगर इन नतीजों ने एक नई बहस को जन्म जरूर दे दिया है, क्योंकि तीनों ही स्थानों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की है।
सत्तारूढ़ पार्टी की यह हार बड़ी इसलिए मानी जा रही है, क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई मंत्रियों की सक्रियता सफल नहीं हो पाई।
भाजपा के राज्य की सत्ता में आए 12 वर्ष का गुजर चुके हैं और संभवत: यह पहला मौका है, जब एक से ज्यादा स्थान पर हुए किसी भी चुनाव में भाजपा के हाथ खाली रहे हों।
सोमवार को सतना जिले की मैहर, रायसेन की मंडीदीप और अशोकनगर की ईसागढ़ के निकाय के चुनाव के नतीजे आए और इन चुनाव में भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी है।
भाजपा के पार्षद भी कांग्रेस के मुकाबले कम जीते।
वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर का मानना है कि यह चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इससे इतना तो साफ हो ही जाता है कि जमीनी हकीकत बदल रही है और भाजपा की पकड़ ढीली पड़ रही है।
इन नतीजों से आगामी विधानसभा चुनाव को तो नहीं जोड़ा जा सकता, मगर राजधानी के पास के मंडीदीप में हारना भाजपा की पकड़ को ढीली पड़ने की ओर इशारा तो करता ही है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव का कहना है कि यह चुनाव छोटे जरूर हैं, मगर इस जीत से पार्टी कार्यकर्ताओं को ऊर्जा मिलेगी, उनका उत्साह तो बढ़ा ही है।
उन्होंने कहा कि मीन निकायों के नतीजों से शिवराज सरकार का चेहरा बेनकाब हो गया है। राज्य में बाढ़ से लोग परेशान हैं, किसानों को खाद बीज नहीं मिल पा रहा है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मुख्यमंत्री चौहान जनता से लगातार ‘छल’ करते रहे हैं और इस बार जनता ने उन्हें अपना जवाब दे दिया है।
तीनों निकायों में चुनाव को लेकर भाजपा पूरी तरह गंभीर थी। यही वजह रही कि प्रचार में मुख्यमंत्री स्वयं, कई मंत्री और पार्टी के अन्य नेताओं ने दिन-रात एक किए, कोई कसर नहीं छोड़ी। दूसरी तरफ कांग्रेस के बड़े नेता इस चुनाव से दूरी ही बनाए रहे, फिर भी जीत हासिल हो गई।
एक साथ तीन स्थानों पर मिली हार से भाजपा भी हतप्रभ है।
भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने तो यहां तक कह दिया है कि प्रत्याशी चयन में उनके दल से कोई चूक हो गई। वे आगे कहते हैं कि निकाय चुनाव स्थानीय स्तर पर होते हैं। इसमें उम्मीदवार और स्थानीय मुद्दों का भी बड़ा महत्व होता है।
राज्य की राजनीति के जानकारों का मानना है कि निकाय चुनाव में कांग्रेस के बड़े नेताओं का प्रचार के लिए न आना भी लाभदायक रहा, क्योंकि पार्टी में गुटबाजी नहीं पनपी और भाजपा को भी कांग्रेस के कार्यकाल की याद दिलाने का मौका नहीं मिला।
पिछले चुनाव इस बात के गवाह हैं। जब भी कांग्रेस के बड़े नेता सक्रिय हुए, इक्का-दुक्का चुनाव को छोड़कर अधिकांश में कांग्रेस के खाते में हार ही आई है। ऐसा इसलिए, क्योंकि कांग्रेस के बड़े नेताओं के आने से कार्यकर्ता गुटों में बंट जाते हैं। इससे उम्मीदवार को फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो जाता है।
तीन निकायों के चुनाव में मिली जीत से कांग्रेस को लंबे अरसे बाद जश्न मनाने का मौका मिला है।
अब देखना होगा कि इस जीत का उत्साह कांग्रेस कार्यकर्ताओं में कितने दिन रहता है और यह भी कि इन नतीजों से भाजपा कोई सीख लेती है या नहीं।

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