काठमांडू: नेपाल सरकार ने पारदर्शिता और कानूनी खामियों का हवाला देते हुए बहु प्रतीक्षित बूढ़ी गंडकी जल विद्युत परियोजना के लिए चीन के साथ हुए करार को खत्म कर दिया है। इससे नेपाल में पांव पसारने में जुटी चीन सरकार के मंसूबे पर पानी फिर गया है। सिंहदरबार में आयोजित मंत्री परिषद की बैठक में संसदीय समिति के निर्देशन के अनुसार 1,200 मैगावाट की राष्ट्रीय गौरव परियोजना का अनुबंध खत्म करने का निर्णय लिया गया। यह करार चीन के गेजुबा ग्रुप के साथ किया गया था।
परियोजना को इंजीनियरिंग, खरीद, निर्माण और वित्तपोषण (ई.पी.सी.एफ.) मॉडल के रूप में विकसित किया जाना था, जिसके अनुसार संबंधित निर्माण कंपनी को परियोजना के लिए आवश्यक निधि का संचयन स्वयं करना था। पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाली सरकार ने बूढ़ी गंडकी परियोजना का काम गेजुबा वॉटर एंड पॉवर (ग्रुप) को-लिमिटेड (सी.जी.जी.सी.) कंपनी को सौंपा था। तत्कालीन ऊर्जा मंत्री जनार्दन शर्मा ने इस संबंध में 4 जून को समझौता ज्ञापन (एम.ओ.यू.) पर हस्ताक्षर किए थे।
नेपाल में हिट हुआ डोभाल का दाव
चीन को उसकी वन बैल्ट-वन रोड पॉलिसी पर पहले ही मुसीबत में डाल चुके देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का दाव नेपाल में भी हिट हुआ है।
चीन की कोशिश थी कि आर्थिक संकट से जूझ रहे नेपाल को उसके प्रोजैक्ट में मदद कर अपने साथ मिलाया जाए मगर डोभाल की कूटनीति के आगे चीन की कूटनीति फेल हो गई। नेपाल के सबसे बड़े 2.5 बिलियन डॉलर के हाइड्रो प्रोजैक्ट के मामले में डोभाल की कूटनीति रंग लाई और नेपाल की सरकार ने चीनी कंपनी को अपने यहां से खदेड़ दिया।
भारतीय कंपनियों को होगा लाभ
चीनी कंपनी के बाहर होने से अब इस बड़े प्रोजैक्ट के निर्माण में भारतीय कंपनी जी.एम.आर. ग्रुप और सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड को हिस्सेदारी मिलेगी जिससे उन्हें लाभ पहुंचेगा। दोनों कंपनियों की 900-900 मैगावाट पॉवर प्लांट बनाने की क्षमता है।
दरअसल डोभाल ने नेपाल को आश्वस्त किया था कि वे अगर चीन की कंपनी को भ्रष्टाचार के आरोप में बाहर करेंगे तो भारतीय कंपनियां निर्माण में सहयोग करेंगी। चीनी कंपनी का नेपाल के सबसे बड़े प्रोजैक्ट से हटने को भारत की कूटनीतिक विजय माना जा रहा है।