भोपाल ! खालवा खण्डवा जिले का वह विकासखण्ड है, जहां समूचे मध्यप्रदेश में कोरकू आदिवासियों की जनसंख्या सर्वाधिक है। यह विकासखण्ड पांचवी अनुसूची का क्षेत्र है और पिछले कुछ वर्षों से बच्चों में कुपोषण के लिए कुख्यात है। विकास संवाद फैलो के होने के नाते मुझे इस क्षेत्र में पोषण की सुरक्षा पर अध्ययन करने का अवसर मिला। साथ ही इस समस्या की व्यापकता को गइराई से जानने और समझने का मौका भी मिला। जहां तक कोरकूओं में कुपोषण का सवाल है, तो यह केवल जन स्वास्थ्य की समस्या नहीं है, बल्कि इसके कई आयाम है और इसका ऐतिहासिक पहलू भी महत्वपूर्ण है।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान के हालिया आंकड़ों के अनुसार यहां शिशु मत्यु दर 68 प्रति हजार है और बाल मृत्यु दर 101 प्रति हजार है। इसी तरह 57 फीसद बच्चे कम वजन के 45 फीसद बच्चे वृध्दि बाधित और 30 फीसद बच्चे सूखने के शिकार हैं। यही स्थिति रही, तो 2015 तक सहस्राब्दि विकास लक्ष्य के 28 प्रति हजार तक शिशु मृत्यु दर को कम कर पाना संभव नहीं दीखता।
दूसरी ओर प्रदेश के वर्तमान औसत सालाना मृत्यु दर 42 की तुलना में भी यहां की स्थिति 68 है, जो निश्चित रूप से बहुत गंभीर है। हालंकि यह स्थिति एक ही रात में निर्मित नहीं हुई है। इसके पीछे भुखमरी का एक लम्बा इतिहास रहा है। दरअसल कोरकू शिकार संग्रहक समूह रहे हैं और जंगलों से ही उन्हें भोजन और पोषण मिलता रहा। इस क्षेत्र में क्रमश: मौर्य, मुगल और परमार राजाओं ने शासन किया, परंतु कोरकू समुदाय पर उनका कोई ध्यान गया।
1881 में पहली बार अंग्रेजों ने कोरकुओं की पहली जनगणना की, जो एक लाख 10 हजार, 951 थी। इसके पीछे यह कारण था, कि जनजातियां अंग्रेजों के अकाल कोड में शामिल नहीं थी और अकाल या महामारी में उन तक राहत पहुंचाना मुश्किल होता था। 1890 तक कोरकुओं की जनसंख्या सामान्य रूप से बढ़ती रही परंतु इसके बाद मवार अकाल, महामारी और सर्दी ने इन पर काफी कहर ढाया।
1896-97 में यह इलाका, जो सीपी एण्ड बरार का हिस्सा हुआ करता था, भयंकर अकाल की चपेट में आया। साथ ही मलेरिया का भी प्रकोप पड़ा। भुखमरी से एक हजार में 70 लोग और मलेरिया से 22 प्रति हजार लोगों की मौतें हुईं। इस कारण पहली बार कोरकुओं की जनसंख्या में भारी गिरावट भी नजर आई। 1901 की जनगणना में इनकी जनसंख्या जो 1891 में 1 लाख 30 हजार थी, घटकर 1 लाख 27 हजार हो गई। 20वीं सदी के प्रारंभ से ही कोरकू आपदायें और भुखमरी झेलते रहे। निमाड़ में ही 1899 में फिर भयंकर अकाल पड़ा, जब मात्र 8 इंच वर्षा दर्ज की गई। तत्कालीन रेकार्ड के अनुसार तब मृत्यु दर 92 प्रति लाख तक पहुंच गई थी। उस समय राहत के रूप में 108 रसोई घर स्थापित किये गये थे, ताकि भोजन वितरण किया जा सके और 31 फीसद जनसंख्या को राहत के रूप में भोजन प्रदान किया गया। ब्रिटिश अकाल कोड के तहत काम के बदले अनाज योजनाएं चलाई गई, जिसमें नहर, तालाब, सड़कें और रेल पथ मरम्मत के कार्य किये गये। ब्रिटिश रेकार्ड के मुताबिक यह सदी का सबसे भयंकर अकाल था। 1905 में मध्य भारत में भयंकर सर्दी के कारण काफी बच्चों की मौतें हुई और 1906 में हैजा ने हजारों लोगों को निगल लिया। 1908 में बारिश पहले ही हो गई और फिर सूखा पड़ गया। इसमें भी सबसे यादा प्रभावित कोरकू ही हुए। अंग्रेजों के द्वारा हरसूद में राहत के लिए रसोई स्थापित की गई, पर 4 हजार कोरकू भी वहां नहीं पहुंच पाये और ब्रिटिश रेकार्ड के अनुसार मात्र 50 हजार रूपये ही खर्च हो पाये।
इसके बाद द्वितीय विश्व युध्द का दौर शुरू हुआ, जब ब्रिटिश सरकार ने बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई और कपास उत्पादन को बढ़ावा दिया। इसके पीछे वजह यह रही, कि युध्द में मारे जाने वाले सैनिकों के लिए संदूक, यातायात के लिए रेल पथ निर्माण और सूती कपड़ों की मांग बढ़ गई थी। एक रोचक बात यह भी रही, कि इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों में कॉफी उत्पादन को भी बढ़ावा दिया गया, जो प्रदेश में अभी भी कहीं-कहीं नजर आता है। इस तरह कोरकुओं को बड़े पैमाने में लकड़ी काटने, चीरने और उन्हें रेलवे के डिपो तक पहुंचाने के काम में लगाया गया। शायद इसी कारण उन्होंने काष्टकारी की निपुणता हासिल की। आज भी कई पुराने घरों के दरवाजों पर सुंदर नक्काशी नजर आती है।
लगभग यही समय था, जब कोरकुओं ने अपना स्थिर जीवन शुरू किया और वन कानून भी अंग्रेजों द्वारा लागू किया। इसीलिए इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में दर्ज है, कोरकू जनजाति मध्यभारत के मध्यप्रदेष और महाराष्ट्र में ही केंद्रित हैं। 20वीं सदी के अंत में उनकी जनसंख्या लगभग 5 लाख 60 हजार थी। परंतु गरीबी और बाघ संरक्षण के सरकारी प्रयासों ने उन्हें अपने पुरखों की जमीनों से विमुख कर दिया । इससे कुपोषण और भुखमरी की गंभीर समस्या कोरकुओं के बीच उत्पन्न हो गई। हालांकि अधिकांश कोरकू स्थिर जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जो 19वीं सदी के अंत तक जंगलों में झूम खेती करते थे। निमाड़ के पुराने गजट में भी दर्ज है, कि कोरकू जंगल से ही झूम खेती और शिकार से अपनी आजीविका प्राप्त करते थे।
स्थिर जीवन ने उनके जंगल से मिलने वाला भोजन और पोषण छीन लिया। वन कानून के चलते शिकार पर तो प्रतिबंध लग गया था। साथ ही जंगल से मिलने वाले अनेक कंद मूल भी उन्हें कम प्राप्त होने लगे। 20वीं सदी के प्रारंभ में यद्यपि बड़े क्षेत्र में कपास बोया जाने लगा था। फिर भी क्षेत्र का प्रमुख भोजन वार था। साथ ही कोदो, कुटकी उड़द, मूंग और चावल भी उगाये और खाये जाते थे। 20वीं सदी के प्रारंभ में वार जो कोरकुओं का प्रमुख भोजन था 25 फीसद क्षेत्र में उगाया जाता था। इसी प्रकार 9 फीसद रकबे में तिल उगाया जाता था, जो प्रमुख तेल के रूप में इस्तेमाल होता था। स्थिर जीवन के दौरान ही कोरकू अधिकतर कृषि मजदूर ही रहे आश्चर्य नहीं, कि 2001 की जनगणना में आधे से भी अधिक यानी करीब 55 फीसद कोरकू परिवारों को कृषि मजदूर दर्शाया गया है। निमाड़ गजट में भी इन्हें सच्चा ईमानदार और मेहनती कहा गया है।
लेकिन 21वीं सदी में वार केवल 7 फीसद ही रह गया है और कोदो- कुटकी महज 2 फीसद तक अगर दालों की बात की जाये, तो उड़द सिर्फ 2 फीसद तक सीमित रह गई है। इनकी जगह सोयाबीन और गेहूं ने ले ली है। आज सरकारी आंकड़ों के अनुसार सोयाबीन 60 फीसद रकबे में और गेहूं 62 फीसद रकबे में उगाई जा रही है। यह त्रासदी है, कि कोरकू किसानों ने भी इसे अपनाया। पर सोयाबीन उनकी खाद्य संस्कृति का हिस्सा नहीं है और गेहूं भी खाने से यादा बेचने के लिए इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार क्षेत्र में तिल का उत्पादन घटकर एक फीसद से भी कम रह गया है।