इंदौर ! बीते कुछ सालों में नदी तंत्र से हुई बेतहाशा छेड़छाड़ का नतीजा अब सामने आने लगा है। नदियों के सूखने के साथ इससे अब जलीय जीवों की कई प्रजातियों पर भी संकट है। जो मछलियाँ कभी नर्मदा और दूसरी बड़ी नदियों की पहचान हुआ करती थी, अब वे वहाँ उँगलियों पर गिनने लायक ही बची हैं। नदी में दाना डालते ही झुण्ड के झुण्ड मछलियाँ उछल-कूद करते हुए दाने की ओर दौड़ आती थी, लेकिन ये बात अब बीते दिनों की कहानी है। हमें अगली पीढी को चित्रों में ही बताना पड़ेगा कि नर्मदा में कभी टाइगर रिवर यानी महाशीर मछलियाँ (टोर-टोर) लाखों की तादात में हुआ करती थीं। कुछ जगह सरकार ने इन्हें बचाने के लिए जतन करना भी शुरू किया है।
मप्र जैव विविधता बोर्ड के अध्ययन में सामने आए ताज़ा आंकड़े हमें चौंकाते हैं कि नर्मदा, केन, बेतवा, चंबल, ताप्ती, और टोंस नदियों में, महाशीर मछलियों की तादात अब बहुत कम बची है। 5 -10 सालों पहले तक इन बड़ी नदियों की कुल मछलियों की 25 से 28 फीसदी महाशीर हुआ करती थी। पानी में इसकी अपनी अल्हड मस्ती देखने काबिल हुआ करती थी। इसी सुंदरता और चंचलता से इसे मछलियों की रानी कहा जाता रहा है। पर अब इनकी तादात घटकर महज 3-4 फीसदी तक आ पंहुची है।
चिंताजनक है कि इसके अंडे और बच्चे अब प्रवाह क्षेत्र में नहीं मिल रहे हैं। महाशीर के प्रजनन और कुनबा बढाने की प्राकृतिक स्थितियां इसके लिए बाधक हो रही है। मप्र में मछलियों की 215 प्रजातियों में से 17 पर विलुप्ति का खतरा है। नदियों के प्रवाह क्षेत्र (नर्मदा में बांधों के निर्माण के बाद) में प्राकृतिक जल प्रवाह में ठहराव से इनके प्रजनन पर विपरीत असर पड़ा है, बोर्ड के सदस्य सचिव डॉ एसपी दयाल की मानें तो यह मछली प्रवाहित स्वच्छ जल धाराओं में ही प्रजनन करती है, जबकि नर्मदा जैसी सदानीरा नदियाँ अब ठहरे हुए जलाशयों में तब्दील हो रही हैं, जो मूल चिंता की बात है। इसके अलावा रेत का अवैध खनन, अतिक्रमण, प्रदूषण, मछलियों का अवैध शिकार, प्रवास नहीं होने से प्रजनन पर असर, खेती, पेयजल आदि के लिए नदियों का पानी खींच लेने जैसे कारण भी हैं। उन्होंने बताया कि नर्मदा में प्रवाहित जलधाराओं के कारण अब बहुत कम जगहें हैं, जहाँ महाशीर बची है। बोर्ड ने इन्हें चिन्हांकित किया है। ओंकारेश्वर बाँध से खलघाट के बीच ऐसे स्थल हैं, जहाँ इन्हें संरक्षित करने की योजना बनाई जा रही है। कुछ हिस्सों में कृत्रिम जल धाराओं से नदी के पानी को प्रवाहित करने पर भी काम चल रहा है। राज्य सरकार ने विलुप्ति से बचाने के लिए इसे 26 सितंबर 2011 को राज्य मछली का दर्जा दिया है, वहीं इसके संवर्धन हेतु प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग रंग मिलते हैं, कहीं तांबई, कहीं चांदी की तरह तो कहीं सुनहरा और कहीं काला। स्थानीय लोग बताते हैं कि महाशीर को बचाना है तो सबसे ज़्यादा ध्यान इसके प्रजनन काल में रखना होगा। सरकार इस दौरान मछलियों के शिकार पर रोक तो लगाती है लेकिन ठोस कार्यवाही नहीं होने से शिकार होता रहता है और सबसे बड़ा खामियाजा वयस्क मादा मछलियों को उठाना पड़ता है, जिनके शरीर में तब सैकड़ों अंडे होते हैं।