नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पैतृक संपत्ति के बंटवारे में पुरुषों की प्राथमिकता को सिरे से खत्म करते हुए मंगलवार को एक बड़ा फैसला दिया। कोर्ट ने कहा कि बेटियों का पिता, दादा और पड़दादा की संपत्तियों में 1956 से ही बेटों जैसा अधिकार होगा। 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू हुआ था। तीन जजों की पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने फैसला सुनाते वक्त कहा, ‘बेटा पत्नी मिलने तक बेटा रहता है, बेटी आजीवन बेटी ही रहती है।
जन्म-मृत्यु से लेना-देना नहीं: सुप्रीम कोर्ट
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने 2005 में संशोधित हिंदू उत्तराधिकार कानून की धारा 6 की पहले की व्याख्या बदल दी। बेंच ने कहा कि 9 सितंबर, 2005 को पिता जिंदा थे या नहीं, बेटी का जन्म भी इस तारीख से पहले हुआ या बाद में, इसका पुश्तैनी संपत्ति में अधिकार से कोई लेना-देना नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने साफ कहा कि जिस तरह पैतृक संपत्ति में बेटों का अधिकार होता है, उसी तरह बेटियों का भी जन्मजात अधिकार है। 9 सितंबर, 2005 को हिंदू उत्तराधिकार (संसोधन) कानून, 2005 लागू हुआ था।
बेटियों को बेटों जैसा अधिकार और दायित्व: SC
121 पन्नों के अपने फैसले में जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा, ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 की संशोधित धारा 6 संशोधन से पहले या बाद जन्मी बेटियों को हमवारिस (Coparcener) बनाती है और उसे बेटों के बराबर अधिकार और दायित्व देती है। बेटियां 9 सितंबर, 2005 के पहले से प्रभाव से पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार का दावा ठोक सकती हैं।’ हालांकि, बेटियां ऐसा करते वक्त 20 दिसंबर, 2004 से पहले जीवित हमवारिसों द्वारा पैतृक संपत्ति की बिक्री या अपने हक में लेने पर सवाल नहीं उठा सकती हैं जैसा कि संशोधित धारा 6 में कहा गया है। कोर्ट ने संयुक्त हिंदू परिवारों को हमवारिसों को ताजा फैसले से परेशान नहीं होने की भी सलाह दी।
ताजा फैसले से बेटों के अधिकार पर असर नहीं
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा, ‘यह सिर्फ बेटियों के अधिकारों को विस्तार देना है। दूसरे रिश्तेदारों के अधिकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। उन्हें सेक्शन 6 में मिले अधिकार बरकरार रहेंगे।’ बेंच ने सेक्शन 6 को पूर्व की तिथि से लागू होने के सवाल पर कहा कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार 1956 से ही मिलेगा जब यह कानून अस्तित्व में आया था। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि ताजा फैसले का हवाला देकर कोई बेटी उन पैतृक संपत्तियों पर अपना हक नहीं जमा पाएंगी जिनका निपटान (बिक्री या बंटवारा) 20 दिसंबर, 2004 से पहले हो गया है।
जब SC ने कहा- बेटे तो पत्नी पाने तक बेटे, बेटियां…
पैतृक संपत्ति उसे माना जाता है जिसे कोई हिंदू अपने पिता, दादा या पड़दादा से प्राप्त करता है। सिर्फ वारिस को ही पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी मांगने का अधिकार होता है। हिंदू परिवारों के स्वामित्व वाली विभिन्न प्रकार की संपत्तियों पर लागू मिताक्षरा सिस्टम का विश्लेषण करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा ने 1996 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र किया। उन्होंने कहा, ‘बेटा तब तक बेटा होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती है। बेटी जीवनपर्यंत बेटी रहती है।’
केंद्र सरकार ने किया जोरदार समर्थन
केंद्र सरकार ने भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए पैतृक संपत्ति में बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी का जोरदार समर्थन किया। केंद्र ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जस्टिस मिश्रा ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि बेटियों के जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि उसके अधिकार पर यह शर्त थोपना कि पिता का जिंदा होना जरूरी है, बिल्कुल अनुचित होगा। बेंच ने कहा, ‘बेटियों को जन्मजात अधिकार है न कि विरासत के आधार पर तो फिर इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है कि हिस्सेदारी में दावेदार बेटी का पिता जिंदा है या नहीं।’
देर से सही, लैंगिक समानता का लक्ष्य पूरा: सुप्रीम कोर्ट
कोर्ट ने 2005 के संशोधन को देर से लिया गया उचित निर्णय बताया। बेंच ने कहा, ‘लैंगिक समानता का संवैधानिक लक्ष्य देर से ही सही, लेकिन पा लिया गया है और विभेदों को 2005 के संशोधन कानून की धारा 6 के जरिए खत्म कर दिया गया है। पारंपरिक शास्त्रीय हिंदू कानून बेटियों को हमवारिस होने से रोकता था जिसे संविधान की भावना के अनुरूप प्रावधानों में संशोधनों के जरिए खत्म कर दिया गया है।’
Good cavrage