भिण्ड। मध्यप्रदेश के उत्तरप्रदेश की सीमा से लगा हुआ चंबल के बीहड में जो कभी दस्यु सरगनाओं का आश्रय हुआ करते थे अब इन्हीं चंबल के बीहड में श्री 1008 अजितनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बरही जैन मंदिर में गणाचार्य विराग सागर जी महाराज, आचार्य विनम्र सागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य श्री 1008 मज्जिनेन्द्र अजितनाथ पंचकल्याणक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा गजरथ महोत्सव में पूज्य गुरूदेव ने धर्मसभा को सम्बोधित करते हुये कहा कि तप कल्याणक का अर्थ है दीक्षा कल्याणक और जहां दीक्षा का नाम आता वहां बड़े-बड़े विद्वानों के विचारों में भी उथल पुथल होने लगती है क्योकि दीक्षा यानि जहां सारी इच्छाओं को तिलांजलि दे दी जाती है। किंतु जिनका वैराग्य प्रबल होता है ऐसे भव्य प्राणी अपने आत्मकल्याण का लक्ष्य लेकर दीक्षा ले आत्मसाधना कर अंत में समाधि मरण कर शीघ्रातिशीघ्र निर्वाण को प्राप्त करते है ऐसा ही प्रबल वैराग्य तीर्थंकर महापुरूषों का होता है जिनके वैराग्य को देख राजसभा में हलचल मच जाती है वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षा हेतु उद्यत होते है वैरागी को कोई भी राग में नही लगा सकता वे मोक्ष पथ पर बढ़ते है। तीर्थंकर के वैराग्य के समय देव स्वर्ग से आकर उस आनंद उत्सव को मनातें है। भगवान की पालकी को उठाने का प्रथम सौभाग्य भूमिगोचरी को दिया जाता है इसका मुख्य का कारण यह है। कि देवगण संयम धारण नही कर सकते और मनुष्य संयम धारण कर मोक्ष भी जा सकता अतः प्रथम 7 कदम मनुष्य पालकी उठाते है पश्चात् 7 कदम विधाधर फिर उसके बाद चारों निकायों के देव पालकी उठाते है तथा शुभ क्षेत्र वन आदि में पालकी उतारते है।
वे तीर्थेकर देव ‘‘नमः सिद्धेभ्य‘’ बोलकर समस्त वस्त्राभूषणों का त्याग कर देते है तथा पंचमुष्ठी लोंच करते है यानि पॉच अंगुलियों से मुट्ठी बनाकर अपने सारे केश उखाड़ देते है यह उनके वैराग्य का प्रतीक है और दीक्षा लेते ही उन्हे आत्म विशुद्धि का प्रतीक चतुर्थ मनःपर्याय ज्ञान प्रकट हो जाता है तथा अनेक ऋद्धियां उत्पन्न हो जाती है। दीक्षोपरांत वे भगवान बेला तेला का नियम लेकर ध्यानस्थ हो जाती है।
अंत में उन्होनें कहा कि जो भव्य भगवान के दीक्षा कल्याणक की पूजा करता है वह सारी मनोकामनाआंे को प्राप्त कर एक दिन स्वयं भी दीक्षा कल्याणक का पात्र बन जाता है। अतः आप सभी भी उस महान अभ्युदय को प्राप्त करे ऐसी निरंतर भावना भाता हॅू।