उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की इस बात के लिए सराहना की जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय शासन तंत्र के सबसे ताकतवर दबाव को दरकिनार कर लखनऊ और नोएडा जैसे महानगरों में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू कर दी है। देश के इन दो महत्वपूर्ण शहरों में अब पुलिस कमिश्नर होंगे इससे पहले 15 राज्यों के 71 शहरों में यह सिस्टम काम कर रहा है। इसलिये कहा जा सकता है कि इस निर्णय में नया क्या है….? असल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली भारत में सबसे ताकतवर कही जाने वाले आइएएस बिरादरी के परम्परागत और सामन्ती प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रशासनिक प्रक्रिया है। पूरी दुनियां में भारत की आईएएस बिरादरी को सबसे ताकतवर, जड, और परम्परागत माना जाता है। आजाद भारत में शासन और राजनीति का अनुभव इस मान्यता को स्वयंसिद्ध करता है। वस्तुतः यह सामान्य धारणा है कि आइएएस ही भारत को चलाते हैं। ऐसे में आदित्यनाथ योगी ने मुख्यमंत्री के रूप में इस लॉबी के अधिकारों को सीमित करने और उन्हें आईपीएस संवर्ग में हस्तांतरित कर बिरली राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है। इस प्रणाली को रोकने के लिए आईएएस लॉबी हर राज्य में समवेत होकर सक्रिय हो जाती है। इसी उत्तरप्रदेश में 40 साल पहले 1979 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने कानपुर शहर के लिए पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू की थी लेकिन तबके पुलिस कमिश्नर को कानपुर पहुँचते ही वापिस बुला लिया गया था। क्योंकि मुख्यमंत्री पर लखनऊ में आइएएस लॉबी ने इतना दबाब बना दिया था कि उन्हे मजबूर होकर कमिश्नर नियुक्त किये गए श्री त्रिपाठी को फोन लगाकर ज्वाइनिंग से पहले ही वापिस बुलाना पडा। मायावती को अफसरशाही के विरुद्ध सख्त मिजाज सीएम गिना जाता है लेकिन वह भी इस मामले में निर्णय नही कर अखलेश यादव ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में इस आशय के प्रस्ताव को आगे बढाने की कोशिशें की थी। लेकिन वह भी सफल नही हुए। ऐसे में उत्तरप्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इस बडे नीतिगत निर्णय को अमल में लाकर निसंदेह आईएएस लॉबी को हद में समेटने का काम किया है। असल में अभी तक का अनुभव भी इस मामले में आइएएस की अपरिमित ताकत और मनमर्जी की तस्दीक करते है। मध्यप्रदेश के ताकतवर मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने 14 मई 2001 को प्रदेश के दो बडे शहर इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने की घोषणा की लेकिन वह ढाई साल तक इसे लागू नही कर पाए और 2003 में सत्ता से बाहर हो गए।
28 फरवरी 2012 को फिर से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कमिश्नर सिस्टम लागू करने का एलान किया लेकिन अपने इस दूसरे कार्यकाल में वह इसे आगे नही बढा पाए। तीसरे कार्यकाल में जनवरी 2018 में भी शिवराज सिंह ने इंदौर ,भोपाल में नए पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति की प्रक्रिया को आगे बढाया। लेकिन शिवराज सरकार प्रदेश में ताकतवर आईएएस लॉबी के आगे लगातार घुटने टेकती रही। बहुमत और राजनीतिक ताकत के मामले में दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह प्रदेश के चुनौती शून्य मुख्यमंत्री थे। लेकिन दोनों की सरकारें आईएएस प्रभुत्व और वर्चस्व के लिये जानी जाती रही। नतीजतन मुख्यमंत्रियों की घोषणाए आईएएस की ताकत के आगे दफ्तरी डस्टबिन में समाती रही। हरियाणा में हुड्डा, और ओडिशा में नवीन पटनायक के समक्ष भी ऐसी ही परिस्थितियां निर्मित हुई। समझा जा सकता है कि हमारे तंत्र में आईएएस की ताकत किस व्यापकता से निर्वाचित निकाय को ऑक्टोपशी शिकंजे में जकडे हुए।
फिलहाल लखनऊ और नोएडा में कुछ दाण्डिक ताकतों का प्रयोग अब कलेक्टर (डीएम) की जगह पुलिस कमिश्नर करेंगे। वे दंगा ,बलबा, या शान्ति भंग की मैदानी स्थिति में धारा 144 के लिए डीएम के मोहताज नही होंगे। धारा 151,107, 116, 109, 110 के तहत अपराधियों की जमानत लेंगे। आर्म्स एक्ट, आबकारी, बिल्डिंग परमिशन जैसे काम भी खुद करेंगे। अफवाह तंत्र के विरुद्ध इंटरनेट शट डाउन के लिए भी वे खुद सक्षम होंगे। इस सिस्टम के तहत अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर का अधिकारी लखनऊ और नोएडा के पुलिस कमिश्नर होंगे। नोएडा इस समय भारत की मिनी आर्थिक राजधानी के बराबर है वहाँ कानून व्यवस्था वाकई संवेदनशील विषय है। कमोबेश लखनऊ भी देश का सबसे प्राचीन और संवेदनशील शहर है। जाहिर है दोनों शहरों में पुलिस सिस्टम बहुत ही अपरिहार्य था। पुलिस कमिश्नर सिस्टम मूलतः अंग्रेजी राज के अवशेषों में ही एक है । पहले यह प्रेसिडेंसी शहरों यानी मुबई, मद्रास, कोलकाता में लागू रहता था। भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 कानून व्यवस्था के कुछ मामलों को विनियमित करने की शक्तियां डीएम को देता है जो कि पहले आईसीएस और बाद में आइएएस होते है। आईएएस अफसर अपनी दाण्डिक शक्तियों को एसडीएम के पास प्रत्यायोजित करते है। इसलिये जिलाबदर, गैंगस्टर,जैसे मामलों में पुलिस की भूमिका नगण्य रहती है। इसे जिला बदर की कारवाई से समझा जा सकता है। किसी कुख्यात अपराधी का आतंक जब थाना क्षेत्र से निकलकर विस्तारित होने लगता है तब पुलिस ऐसे अपराधियों के विरुद्ध जिला बदर की कार्रवाई प्रस्तावित कर डीएम/कलेक्टर को भेजती है। डीएम ऐसे प्रकरणों को अपने यहां दर्ज कर बकायदा सुनवाई और पक्ष समर्थन की प्रक्रिया अपनाकर एसपी के प्रस्ताव पर निर्णय करते है। अक्सर देखा गया है कि डीएम राजनीतिक या अन्य दबाब में आकर इन प्रकरणों को लंबे समय तक लटकाए रखते है। पुलिस कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार कलेक्टर्स से छीन जाते है और कमिश्नर जिला बदर और गैंगस्टर एक्ट में सीधे निर्णय करने लगते है। जिला बदर अपराधी नियत समयावधि तक न केवल गृह जिले बल्कि उसके सभी सीमावर्ती जिलों में नही रह सकता है। कमिश्नर कार्यक्षेत्र में आर्म्स लाइसेंस भी कलेक्टर नही कमिश्नर देते है अभी जिलों के पुलिस अधीक्षक कलेक्टर को अपनी सिफारिश भेजते है कि फलां व्यक्ति को हथियार लाइसेंस दिया जाए या नही। धरना प्रदर्शन के दौरान कानून और सुरक्षा व्यवस्था बनाने का काम पुलिस के जिम्मे रहता है लेकिन इनकी अनुमतियाँ सबंधित एसडीएम जारी करते है। कमिश्नर प्रणाली में यह अधिकार भी राजस्व अफसरों से छीन लिया जाता है। बडे शहरों में यातायात को निर्बाध बनाने के लिए पुलिस को बडी मशक्कत करनी होती है अक्सर अतिक्रमणकारियों के आगे पुलिस लाचार नजर आती है। कमिश्नर सिस्टम के चलते नगर निगम प्रशासन को न्यायिक आदेश जारी करने के अधिकार पुलिस को मिल जाते है। पुलिस कमिश्नर जमीनों और अतिक्रमण के मामलों में भी पटवारियों या दूसरे मैदानी राजस्व कर्मियों को एक्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट की तरह आदेश जारी करते है। जाहिर है यह आईएएस अफसरों की ताकत में आईपीएस की सेंधमारी है। इस सबके बाबजूद यह भी ध्यान रखना होगा कि पुलिस और आम आदमी के रिश्ते आज भी भरोसे के नही भय के धरातल पर है। ऐसा न हो कि कमिश्नर सिस्टम इस भय को और बडा कर दे।