भोपाल ! प्रदेश की जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए शासन द्वारा कायाकल्प अभियान शुरू किया गया है। इसके लिए भारी भरकम अतिरिक्त बजट भी रखा गया है। लेकिन विश्व प्रसिध्द पर्यटन स्थल माण्डव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की हालत जस की तस है।
दरअसल, भील आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र माण्डव की जनसंख्या साढ़े 10 हजार से कुछ अधिक है और इतनी बड़ी आबादी के लिए महज एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, जिसका दारोमदार एक ही डॉक्टर जोगेन्द्र सिंह डावर पर है। प्राप्त जानकारी के अनुसार लगभग ढाई सौ प्रसव हर साल इस केंद्र में होते हैं लेकिन यह केंद्र किसी खण्डहर से भी गया-बीता नजर आता है। वर्षों से यहां पुताई नहीं हुई है। 10 गुणा 10 फीट के जिस कमरे में प्रसव के बाद माताओं को रखा जाता है, वह इतना छोटा है, कि तीन प्रसव के बाद इस कमरे के बजाय बरामदे में प्रसव करवाना पड़ता है। सीलन से भरे इस कमरे की छत में नीचे प्लास्टिक की चादर लगा दी गई है, क्योंकि बरसात में छत से पानी टपकता है। पंखा होने का तो सवाल ही नहीं । दीवारों पर काई जमी हुई है और मौके पर बिजली भी नहीं मिली। इस अंधेरी कोठरी में चार प्रसूताएं अपने बिस्तर पर लेटी थीं। उनके साथ उनके परिजन भी थे। अटल योति के बारे में पूछने पर यहां की नर्स ने बताया, कि बिजली अक्सर चली जाती है। वहीं गंदगी और कीचड़ से भरा बरामदा दिखाते हुए चार में से एक प्रसूता के परिजन ने बताया, कि उनकी बहू ने अभी-अभी यहीं एक शिशु को जन्म दिया है, क्योंकि कमरे में तो पहले से ही तीन प्रसूता लेटी हुई हैं।
केंद्र की दीवार पर 24 घण्टे सेवा के आश्वासन के साथ जननी एक्सप्रेस का फोन नम्बर लिखा है। एक चिकित्सक, एक नर्स और एक एएनएम के सहारे 24 घण्टे की सेवा का वादा बेमानी लगता है। हालांकि इस गर्मी और अंधेरे में भी डॉक्टर अपनी डयूटी निभा रहे होते हैं। उनके कमरे की हालत भी वही है, जो प्रसूताओं वाले कमरे की है। यह कमरा भी सीलन और काई से अटा पड़ा है। पंखा यहां भी नहीं है। एएनएम के बारे में पूछने पर बताया गया, कि वह घरों में सेवाएं देने के लिए गई हुई है।
डॉ. डावर से जब यह पूछा गया, कि प्रसूताओं के आने का तो कोई समय निश्चित नहीं है, ऐसे में वे अपनी डयूटी कैसे निभाते होंगे। उन्होंने कहा, कि मेरी अनुपस्थिति में यदि कोई प्रसूती होती है, तो परिजन उसे बाहर का दूध या शहद चटा देते हैं। नर्स द्वारा लाख समझाने पर भी वे नहीं मानते । अधिकांश प्रसूता महिलाओं के बुजुर्ग परिजन शिशु को स्तनपान करवाने में विश्वास नहीं करते। जहां तक शिशु को टीका लगवाने का सवाल है, तो जब टीका उपलब्ध होता है, तब समझा-बुझाकर लगवा दिया जाता है। लेकिन पहले टीके के लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। रोजगार की तलाश में पलायन के चलते टीके लगवाने वाले शिशुओं की संख्या और भी कम हो जाती है। लगभग 20 फीसदी मामलों में यही होता है।
गौरतलब है, कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भोर कमेटी के अनुसार प्रदेश की जनसंख्या के अनुपात में वर्तमान में वांछित चिकित्सकों की संख्या (निजी एवं शासकीय चिकित्सकों को मिलाकर) 50 फीसदी से भी कम है। वर्तमान में प्रदेश में लगभग 4हजार शासकीय चिकित्सक कार्यरत हैं, जबकि स्वीकृत पद लगभग 72 सौ हैं, यानी करीब 32 सौ डॉक्टर अभी भी कम हैं।
इनका कहना है
इधर मध्यप्रदेश चिकित्सा अधिकारी संघ के अध्यक्ष डॉ. अजय खरे बताते हैं, कि स्वास्थ्य कर्मियों से शासन की उम्मीदें बहुत ऊंची हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ निर्धारित मानकों से बहुत कम हैं। इस कमी के साथ-साथ जांच उपकरण भी पर्याप्त न होने कारण मरीजों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा दे पाना असंभव है, लेकिन शासन इन समस्याओं पर ध्यान नहीं देता।
डॉ. खरे के अनुसार डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टॉफ की नियुक्ति भी रोटेशन में होना चाहिए। कभी मैदानी पदस्थापना वाले चिकित्सकों को शहर में और शहर वालों को मैदानी स्तर पर नियुक्त किया जाना चाहिए। खाली पदों को भी तुरंत भरा जाना चाहिए।